मरहूम अल्हाज सईद अहमद सय्यद |
Center late Sayaeed Ahmed ,Right Late Raziuddin ,Left Advocate Niaz ,Front Late Ghulam Mohiuddin |
Tree plantation on occasion of death Anniversary of Late Sayeed Ahmed |
नाम : मरहूम सईद अहमद सय्यद उर्फ़ बना भाई (तारीख पैदाइश :०१/०६ /१९४२ ,नवापुर तारीखे वफ़ात :२३/०९/२०१४ ,अजमेर शरीफ , दफ़न : सोनगढ़ क़ब्रस्तान )
वालिद का नाम : इकरामुद्दीन सैय्यद वालिदा का नाम : मुमताज़ बी
बीवीयों के नाम : रफ़ीक़ा सय्यद ,फहीमुन्निसा सय्यद
औलाद के नाम : ज़की सैय्यद ,मोहसिन सैय्यद ,मरहूम वसीम सय्यैद ,आतिफ सैय्यद ,काशिफ सैय्यद ,फरहत ऐजाज़ शैख़ , साईमा खालिद शेख़
हज : २००९ में अपनी अहलिया के साथ हज का फ़रीज़ा अदा किया
एज़ाज़ (Post Held ):
१९८० से १९९० सरपंच भड़भूँजा
वाईस प्रेजिडेंट :उच्छल खेतवाड़ी
मेंबर- ऋषि मंडली उच्छल
ट्रस्टी -सोनगढ़ गुणसादा शुगर फैक्ट्री
मुतवल्ली -सोनगढ़ इस्लामपुरा मस्जिद मदरसा ट्रस्ट
सभ्य -मलेकपुर अंजूमन
तुम्हरी याद के जब ज़ख्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुमेह याद करने लगते है
मरहूम सईद अहमद उर्फ़ बना भाई रिश्ते में हमारे सगे मामू है। गुजरात में हर किसे के नाम के साथ उर्फियत लगी होती है। मरहूम से में पूछ न सका वो सईद अहमद से बना भाई , कब और कैसे बने।
नवापुर शिवजी मराठी स्कूल से मरहूम ने मीट्रिक पास किया। बॉम्बे की मशहूर "Ismael Yusuf College " जोगेश्वरी से इंटर आर्ट्स का इम्तेहान पास किया। सादिक़ अहमद इंजीनियर उनके बड़े भांजे ने उसी कॉलेज से इंटर साइंस का इम्तेहान पास किया। दोनों हॉस्टल में रहते थे। सादिक़ अहमद ,मरहूम सईद अहमद को "गोरे मामू "कहते , सारे कॉलेज में वो इसी नाम से मशहूर हो गए थे। अब्दुल करीम हल्दे जो हॉस्टल में उनके पडोसी थे ,(रिज़र्व बैंक से डिप्टी मैनेजर की पोस्ट से रिटायर हुवे है ) अक्सर अब भी मरहूम की बातें याद करते हैं। मरहूम सईद अहमद ने भोपाल यूनिवर्सिटी से आर्ट्स की डिग्री हासिल की। एक साल Law भी स्टडी किया । मरहूम ने उर्दू अदब में BA किया था और उनके पास उर्दू किताबो का खज़ाना था। उमराव जान अदा ,किस्सा गुल बकावली ,दीवाने ग़ालिब ,कुल्लियाते इक़बाल ,ग़ालिब के शेरो की तशरीह जो अल्लामा हाली ने लिखी है, ये तमाम मेयारी (Standard ) किताबे मै ने उनके पास पायी थी। उस समय समझ में तो नहीं आता था फिर भी पढ़ लेता था। मुझे अपनी किताबें पढ़ते देख मरहूम बहुत खुश होते थे।
अल्फ़ाज़ व सूरत व रंग व तस्सवर के रूप में
ज़िंदा हैं लोग आज भी मरने के बावजूद
हाजी सईद अहमद अपने चार भाईयों ( हाजी अफ्ज़लोद्दीन ,ग़ुलाम महियोद्दीन ,मुहम्मद युसूफ ) और तीन बहनों (बिस्मिल्ला ,अकीला ,जीलानी) में सब से छोटे थे। सब की आँखों का तारा , माँ ,बाप (इकरामुद्दीन,मुमताज़ बेगम ) के नूरे नज़र थे। भाइयों में सब से छोटा कद उनिह का था। रंग सफ़ेद माईल (बेहद गोरा ) था। बोलती हुवी ऑंखें ,सर पर घनेरे बाल। नफासत पसंद थे।खुश मिज़ाजी कूट कूट कर भरी थी। सफ़ारी पहननेका का शौक़ था। किसी ज़माने में imported Pistol लिए घूमते थे। लइसेंस भी बनवा रखा था। double boar वाली gun भी थी ,कभी कभी शिकार भी खेल लेते थे। अच्छे खानो का उनेह शौक़ था। खाने से ज़ियादा उन्हे लोगों को खिलने का शौक़ था।बेहद खुश मिज़ाज थे। छोटे छोटे जोक्स पर कई कई रोज़ हस्ते रहते। में नए नए सीरिया गया था में ने उनसे कहा "गोर मामू सीरिया की औरतें बडी गोरी होती है ,लेकिन वहां के लोग मुझ से अपनी बीवियों के लिए fair and lovely क्रीम की डजनो बोतलें मंगवाते है ,ये तो वही बात हुवी न जैसे north pole वाला स्कीमों, जहाँ साल भर बर्फ़बारी होती है इंडिया से बर्फ मंगवाए " मरहूम कई रोज़ तक इस जोक को enjoy कर हस्ते रहे। मरहूम ने हिस्सास तबियत पायी थी।
मिट्टी को सोना बनाना के फैन उन से सीख जा सकता था। जो कारोबार किया आन ,बान ,शान से किया लकड़ों का कारोबार किया पूरे जंगल खरीद लिया करते थे। टट्टे वैगन भर के अहमदाबाद को रवाना करते। मछ्ली का कारोबार ,मानो एक छोटी मोटी industry चला रहे हो । उकाई dam की टनों मछलियां बॉस्केट में पैक की जाती ,कलकत्ता को भेजी जाती थी। जब तक मछली के टोकरे ट्रैन में लोड नहीं होजाते थे, हावड़ा एक्सप्रेस भड़भूँजा स्टेशन पर रुकी रहती। उसी ज़माने में (१९७४ -१९७७) मरहूम बॉम्बे से कलकत्ता प्लेन से सफर किया करते थे।
जी रहा हूँ इस उम्मीद के साथ
ज़िन्दगी को मेरी ज़रुरत है
1978 में अपनी पहली रफ़ीक़े हयात जिन का नाम रफ़ीक़ा ही था ,की मौत पर में ने उनेह टूटते देखा। लेकिन वसीम ,ज़की ,मोहसिन ,फरहत जहाँ की खातिर अपने आप को संभाला,एक नयी ज़िन्दगी की शुरवात की ,दोबारा अपना घर बसाया। दूसरी बार वसीम उर्फ़ बुल्या की नागहानी मौत ने उन्हें एक गहरे सदमे से दोचार किया।
मुझे सहल होगयी मंज़िले /
दूसरी बीवी फहीमुन्निसा ने भी उनका साथ खुलूस ,अपनाइयत ,बराबरी से दिया। उन के ग़म अपने दामन में समेट लिए। मरहूम माशाअल्लाह कसीर उल औलाद थे। उनोह्ने ने अल्लाह के रसूल (स अ स )की उस हदीस पर अमल किया, आप ने फ़रमाया था " में उम्मत के उन लोगों पर फख्र करुंगा जिन की औलाद ज़्यादा होंगी"।
नशेमन पर नशेमन इस तरह तामीर करता जा
मरहूम अपने पसंद की चीज़ मुं मांगे दामों पर खरीद लिया करते थे। डॉक्टर वासिफ मुझे बता रहे थे मरहूम नें सोनगढ़ में जिस पारसी का बंगला खरीदा (जो उनेह बहुत पसंद था ) उस की कीमत इतनी ज़ियादा लगायी थी, के मालिके माकान ने एक पल की हिचकिचाहट के सौदा तय कर लिया था। उस बंगले का नक़्श आज भी मेरे ज़हन में जूँ की तूँ मौजूद है। छोटे से टीले पर चार कमरों पे मुश्तमिल ,आंगन फूलों की खुशबु से महकता ,सीताफल ,अमरुद ,आम के फलों से लदे पेड़ ,पॉलिटरी भी थी ,Servant quarters अलग से बने थे। आंगन में झूले पर बैठ कर आदमी एक और दुनिया में पहुँच जाता था। गोरे मामू की पसंद की दाद दिए बिना नहीं रह सकता ,गोरी मुमानी भी उसी खुशअसलूबी से उस बंगले की देख भाल किया करती थी।
मरहूम अल्हाज सईद अहमद अजमेर शरीफ दरगाह में फातिहा ख्वानी करते हुवे |
मौत का एक दिन मुअय्यन है
मरहूम सईद अहमद को बुज़र्गों से इन्तेहाई अक़ीदत थी। हदीस में आता है आदमी को उन ही लोगो के साथ उठाया जायेगा जिन से वो मुहब्बत रखते है। शायद इस लिए मौत भी पायी तो ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के शहर अजमेर में, जहाँ वो घूमने गए थे । सोनगढ़ के क़ब्रस्तान में आराम फरमा रहे है।
आदमी के इंतेक़ाल के बाद उसके आमाल का सिलसिला ख़त्म होजता है ,लेकिन नेक औलाद के आमाल में उसका हिस्सा ज़रूर उस तक पहुँचात है उसके दरजात बुलुंद होते है। हर साल मरहूम की बरसी पर मोहसिन के ज़िरए tree plantation ,हॉस्पिटल में ग़रीब मरीज़ों में फलों की तक़सीम का सिलसिला काबिले तारीफ़ काम है। अल्लाह उनकी औलाद को इस कारे खैर पर जज़ाए खैरआता करे आमीन सुम्मा आमीन।
Masha allah
जवाब देंहटाएंMashaallah
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