रविवार, 12 जुलाई 2020

ज़िन्दगी क्या है किताबों से निकल कर देखो

आज फिर दर्द के सेहरा (रेगिस्तान) से गुज़रना होंगा 
तारीख़ पे तारीख़ किसी ज़माने में कोर्ट की ज़बान हुवाँ करती थी ।आज जिसे देखो lock down की शिकायत कर रहा है ।कल क्या होंगा किसे ख़बर नहीं ।lockdown ७ के पश्चात क्या ,एक सवालिया निशान (question mark) है ।घर में बैठ कर हर कोयी बेज़ार , दिल शिकंन  ,उकता गया है ।
    क्या कभी हमने अपने अत्राफ (आस पास ) की चीज़ों ,माहोल पर ग़ौर व फ़िक्र किया ।कभी नहीं ज़िंदगी की भाग दौड़ ,मसरूफ़ियत ने इन बातों का मौक़ा हि कब दिया था।
सुबह होती थी शाम होती थी 
उम्र यू ही तमाम होती थी 
   Lockdown में पता चला सुबह (morning) की सुरूवात कोयल की कूक ,पपीहे की हुक से होती है ।फिर चिड़िया चहचहाना शुरू करती है ।फिर सोसाययटी में  कूछः लोग अपनी खिड़कियों से आनज के दाने ज़मीन पर बिखेर देते है ।कहाँ से एक कबूतरों का झुंड आकर इन पर टूट पड़ता है और मिनटों में सफ़ा चट कर जाते है ।फिर शुरू होती है कवों की काँय काँय ,बीच बीच में मीना की सुरीली आवाज़ ,wood picker की  तेज़ चींखें और कभी कभी तोतों का झुंड अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाते है ।सोसाययटी के काम्पाउंड में लगे जंगली फली के पेड़ पर उलटा लटक ,ख़ूबसूरती ,नफ़ासत से फली के दाने अलग करके अपनी भूँक मिटा कर रफ़ू चक्कर होजाते हैं ।आज तक मसरूफ शब व रोज़ ने ये मौक़ा ही नहीं फ़राहम किया ।चौधवीं का चाँद आसमान हर महीने आता था lock down में खिड़की से नज़ारा किया तो लगा इस ख़ामोशी इस चाँदनी को रूह में उतार लू।इसमें शराबोर हो कर इसे अपनी नस नस में उतार कर जज़्ब कर लू ।अंग्रेज़ों को sun bath करते देख ,हँसते थे तंज करते थे ।बेचारे सर्दी ,बर्फ़बारी से इतने बेज़ार होजाते है के मौक़ा मिलते ही सूरज की रोशनी को अपने जिस्म में जज़्ब करने के लिए बेताब हो उठते है ।lock down में अरसे बाद सूरज की रोशनी में नहाया तो महसूस हुवाँ की हम किन किन नेमतों को नज़र अन्दाज़ करते रहे है ।
धूप में निकलों घटावों में नहा कर देखों
ज़िंदगी क्या है किताबों से निकल कर देखों

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