मंगलवार, 12 मई 2020

Sampooran Singh Kalra urf Gulzar

असली नाम : सम्पूर्ण सिंह कालरा
कलमी नाम : गुलज़ार
जन्म तारीख : १८ ऑगस्ट १९३४
जन्म स्थान :जेहलम डिस्ट्रिक्ट पाकिस्तान
अवार्ड्स :नेशनल अवार्ड्स :५
फिल्म फेयर अवार्ड्स : २१
ग्रैमी अवार्ड
साहित्य अकादमी अवार्ड
दादा साहेब फाल्के अवार्ड
पद्म भूषन
बहुत लोग गुलज़ार साहेब के असल नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा , सुन कर चौंक पड़ेंगे जी हाँ यही उनका असल नाम है। गुलज़ार साहब ने बॉम्बे आकर अपने career की शुरुवात विचारे गैरेज जो बेलसिस रोड पर हुवा करता था dainted कारों की पेंटिंग से शरू की। फिर progressive writer assocition में शामिल होने से उनेह फिल्म इंडस्ट्री की तरफ रुझहान हुवा। शरू में असिस्टेंट डायरेक्टर रहे, फिर lyricist , डायलॉग राइटर ,script writer और director बने। हर profession में अपनी छाप छोड़ी। शुरुवात बंदिनी फिल्म के गाने ”मोरा गोरा रंग “
हुवी। इस गीत की कामयाबी से  गुलज़ार साहब कई ऑफर मिलने लगे। गुलज़ार ने फिल्म के मकालमे (डायलॉग )भी लिखने शरू कर दिए। आशीर्वाद ,नमक हराम और आनंद के डायलॉग उन के ही लिखे है। १९७३ से मेरे अपने फिल्म से direction के प्रोफेशन में कदम रखा। यहाँ उनसे मीना कुमारी से दोस्ती हुवी। अपनी शायरी की diary मीना कुमारी ने गुलज़ार साहब के हवाले कर दी थी जो उनके मरने के बाद किताबी शक्ल में publish की गयी। हर बार गुलज़ार साहबने  हर बार नए टॉपिक पर फिल्म बनायीं।
आंधी,,कोशिश ,परिचय ,इजाज़त ,लिबास ,माचिस , नमकीन ,अंगूर ,हु तू तू। हर फिल्म में अपनी अलग राह बनायीं।
उनकी partition के subject पर “जेहलम पार “ किताब दिल को छु लेती है। उनेह  मकबूलियत उनकी शायरी की बिनापर है उनका मजमुए कलाम जानम आम फेहम सलीस language में लिखा गया है। उनकी एक नज़्म
नज़्म उलझी हुवी हे सीने में
शेर अटके हुवे हैं होंठों पर
उडते फिरते है तितलियों की तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुवा हूँ में जानम

सादा कागज़ पे लिख के नाम तेरा

एक तेरा नाम ही मुक्कमिल है
इस से बेहतर भी क्या नज़्म होंगी
गुलज़ार साहब की फिल्मों के टाइटल खूबसरत रोमानी होते है ही ,उनकी फिल्मे देखते देखते  आदमी Emotionaly फिल्म से इतना जुड़ जाता है के उनके किरदारों (charecters ) के साथ हँसता है रोता है उनिह के बीच सांस लेता महसूस होता है। आंधी ,कोशिश ,अचानक भुलाये नहीं भूलती। किताब फिल्म का राजू ,बचपन की भूली शरारतों की यादें ताज़ा कर देताहै। आनंद ,आखरी लम्हात में बाबू मुशाई की नज़्म ,मौत का मंज़र खेंच देती है। कौन पत्थर दिल है जो न पिघले
मौत तू एक कविता है
मुझ से एक कविता का वादा है मिलेगी मुझ को

डूबती नब्ज़ में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिए चाँद उफ़क़ तक पुहंचे
दिन अभी पानी में हो और रात किनारे के करीब
न अँधेरा न उजाला न अभी रात न दिन
जिस्म जब खत्म हो और रूह को साँस आजाये
आंधी में जज़्बाती नाज़ुक रिश्ते। मौसम फिल्म की तवाइफ़ (वैश्या ). मेरे अपने की बूढी नानी जो अपनी मोहब्बत अपनायत से सब का दिल जीत लेती है। अचानक में अपनी बीवी को टूट कर चाहने वाले फौजी शोहर का बीवी की बेवफाई से ज़ख्म खुरदा होकर टूटना। मिर्ज़ा ग़ालिब पर सीरियल बना कर ग़ालिब के किरदार और उनकी ग़ज़लों को नयी ज़िन्दगी
कर दी.
गुलज़ार के फ़िल्मी नग़मे भी खूबसूरत शायरी है। ख़ामशी में आवाज़ें सुनेंका फन महकती
 आँखों की खुशबू ,इश्क़ को रूह से महसूस करना ,सायों का साँस लेना। बच्चों के लिए जो कुछ लिखा अमर कर दिया
,चड्डी पहन के फूल खिला है। हम को मन की शक्ति देना हर स्कूल का एंथम बन गया
नए ज़माने की नब्ज़ पर भी उन का हाथ है जभी तो जय हो, बीड़ी जलाए लो,इब्ने बतूता बग़ल में जूता जैसे बेमिसाल नग़मे अब भी लिख रहे है। फिल्म तलवार और राज़ी में भी उनका फ़न नुमाया है। 






1 टिप्पणी: