मरहूम हाजी क़मरुद्दीन मुंशी |
मरहूम हाजी क़मरुद्दीन अवार्ड लेते हुवे |
हज को जाते हाजी क़मरुद्दीन मुंशी और हज्जन अहलिया रज़िया बेगम |
मरहूम क़मरुद्दीन अपने पोते पोती नवासे नवासी के दरमियान |
सुहिला ,मरहूमा रज़िया बेगम,तारिक़ ,मरहूम क़मरुद्दीन मुंशी ,समीना |
हाजी क़मरुद्दीन मुंशी -पैदाइश :1st May 1921 (यावल ) तारीखे वफ़ात :24th July 2007 (नवापुर )
आने वाली नस्लें तुम पर फख्र करेंगी हम असरो
जब भी उन को ध्यान आयेगा हम ने मुंशी को देखा था
आज जिस शख्स का ज़िक़रे खैर हो रहा है मैं ने उनेह जिंदगी में उनेह देखा हूँ ,उनसे बातें की हैं ,उनके साथ खाने में शरीक हुवा हूँ। में बे हद खुश नसीब हूँ मेरे शगुफ्ता के साथ निकाह में उनोहने वकील बन कर निक़ाह नामे पर दस्तखत किये है। मेरी मुराद अल्हाज Freedom Fighter क़मरुद्दीन मुंशी से है।
खुदा बख्शे बहुत सी खूबियां थी मरने वाले में
मरहूम हाजी कमरुद्दीन मुंशी ने आज से सव (100 ) साल पहले यावल में आज ही के दिन (1st May 1921 ) मोजोद्दिन के घर जनम लिया। वालिद मारूफ शख्सियत थे पेशे से इंजीनियर थे। औलाद की तालीम पर खुसूसी तवज्जे दी। मुझे यक़ीन है अपने बड़े भाई मरहूम वजीहोद्दीन की तरह ,मरहूम क़मरुद्दीन ने भी यावल की मशहूर convent school Sim Cox English school से ही स्कूलिंग किया होंगा।
अक़ाबि रूह जब पैदा होती है नौजवानो में
नज़र आती है मंज़िल उनको अपनी आसमानो में
इस्माइल युसूफ कॉलेज जोगेशवरी से मरहूम ने graduation किया। खेलने का शौक़ था अपनी लम्बे क़द का भरपूर फायदा उठाया । कॉलेज के ज़माने में बेहतरीन वॉलीबॉल और हॉकी के खिलाडी होने का शरफ़ मरहूम क़मरुद्दीन मुंशी को हासिल था। यूनिवर्सिटी मुक़ाबलों में कॉलेज को represent किया। गन शूटिंग में मरहूम को महारत हासिल थी। एक हाथ से भी निशाना बाज़ी का फ़न मरहूम जानते थे।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
आज़ादी की लड़ाई अपने उरूज पर थी। गर्म खून ,उमंगें जवान थी ,मरहूम क़मरुद्दीन मुंशी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज (INA ) में शामिल हुवे। मधु लिमये ,जॉर्ज फर्नांडिस से दोस्ताना ताल्लुक़ात रहे। ज़िन्दगी अपने उसूलों पर खुद्दारी से जी ,कभी न freedom fighter की पेंशन हासिल करने के लिए कोशिश की न अपने पुराने ताल्लुक़ात का फायदा उठाया। सिर्फ अपने मकान (646 ,साहकार नगर ,चेम्बूर ) के बाहेर अपनी name plate पर अपने नाम के साथ स्वतंत्रता सेनानी लिखवाया था। शायद वो अब्दुल कलाम आज़ाद के इस क़ौल पर यक़ीन रखते थे के (Character will give you respect )
मेरे जूनू का नतीजा ज़रूर निकलेगा
मरहूम क़मरुद्दीन मुंशी ने १९४५ में Prohibition and Excise Department में Thane शहर से जमादार की पोस्ट से शुरुवात की। जलगांव ,कल्याण ,कोल्हपुर महाराष्ट्र में पोस्टिंग मिली। अपनी काबिलियत पर उनेह पूरा यक़ीन था ,यहाँ तक के महाराष्ट्र के चीफ मिनिस्टर वसंत दादा पाटिल ,अपने बंगले वर्षा पर उनेह बुलाया करते ,उनसे मश्वरा करते । रिटायरमेंट के बाद department ने उनकी मालूमात का फायदा उठाया। अपनी मेहनत ,लगन और ईमानदारी से १९७९ में Senior Inspector के rank तक पहुंचने के बाद मरहूम ने retirement ली और चेम्बूर के मकान में रिहाइश इख़्तियार की। खुश नसीब रहे १९८६ में अल्लाह के मेहमान बने ,अपनी बेगम के साथ हज का सफर किया।
A mirror reflect man`s face but what he is really like, is shown by the kind of friends he choose .
मरहूम यार बाश थे फिल्म स्टार रेहमान ,प्राण से क़रीबी ताल्लुक़ात थे और मीना कुमारी से भी जान पहचान थी।फिल्म स्टार रेहमान से उनकी गाडी छनती थी। मरहूम शतरंज के माहिर खिलाडी थे ,रेहमान को भी शतरंज का शौक़ था दोनों रेहमान के घर शतरंज की बाज़ी जमाते ,फिर रेहमान उनेह खुद अपनी निजी कार में चेम्बूर के घर तक छोड़ जाते। हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम के कप्तान अजित वाडेकर से उनका याराना था ,अजित वाडेकर ने उनेह ब्रीफ केस तोहफे में पेश की थी खूबसूरत यादगार के तौर पर ख़ज़ाने की तरह मरहूम ने कई साल संभाल से कर रखा था।
कहाँ बच कर चली ऐ फसले गुल मुझ अबला प् से
मेरे पैरो की गुलकारी बियाबान से चमन तक है
कुछ हस्तियां ज़माना साज़ होती है वक़्त से पहले पैदा होजाती है ,अपना क़द इतना बढ़ा लेती है उन के सामने हर कोई अपने आप को बोना महसूस करने लगता है। मरहूम हाजी क़मरुद्दीन मुंशी उनमे से एक थे। सोने पे सुहागा उनेह शरीक हयात रज़िया बेगम भी उनिह की हम ख्याल थी। दोनों में बहुत मोहब्बत थी। मेहमानो से हमेशा घर भरा होता ,मुहतरमा के माथे पर शिकन नहीं आती। खुलूस से खिदमत में लगी रहती। मरहूम ने बहुत से करीबी रिश्तेदारों को रोज़गार दिलवाया , अपने छोटे भाई हसिनोददीन मुंशी को ग्रेजुएशन के बाद मफ़तलाल कंपनी में जॉब दिलवाया था। ज़ैनुद्दीन सय्यद ने उनके घर रहकर मेट्रिक पास किया था। ऐसी कई और मिसाले हैं।
मरहूम ज़बान के बड़े पक्के वाक़े हुवे थे अपनी बड़ी बहन खुर्शीद जिसने शादी के बाद पाकिस्तानी शहरियत हासिल कर ली थी उनसे माँ की तरह मोहब्बत थी ,उनसे वादा किया था के उनसे मिलने पाकिस्तान ज़रूर आएंगे। रिटायरमेंट के फ़ौरन बाद अपनी अहिलिया के साथ पाकिस्तान का सफर किया बहन से मुलाक़ात की अपना वादा निभाया।
मरहूम कमरुद्दीन मुंशी साहब को मुसलमानो में तालीम की कमी का शिद्दत से अहसास था। मूसलीम लड़कियों की तालीम और तर्रकी की वो दिल से कायल थे। उनकी दिली ख्वाहिश थी के उनके ख़ानदान के बच्चे पढ़े और बे इन्तहा तर्रकी हासिल करे। अपनी पोती सीमा से उनेह बहुत उम्मीदें वाबिस्ता थी , और उसने भी उनेह मायूस नहीं किया। होम साइंस में ग्रेजुएशन किया साथ साथ ,इंटीरियर डेकोरेशन भी किया।
कभी किसी ने रंग व बू को पकड़ा है
शफ़क़ को क़ैद में रखा हवा को बंद किया
अपनी अम्मी के इंतेक़ाल के वक़्त मैं ९ साल का था। माँ की कमी जिन हस्तियों ने पूरी की मुझ पर ममता को नौछाव्र किया अदीबुन्निसा ,सरीफुन्निसा (बहने ) , आसिया बेगम (मुमानी), रज़िया बेगम ( ख़ाला )और टेना (ख़ाला ) बतौर ख़ास रही हैं। इन लोगों की मुहबतें ,इनायतें ,करम कभी नहीं भूल सकता।
१९७१ में जलगाव् से मीट्रिक करने के बाद महतरम सादिक़ भाई ने मुझे मुंबई बुलवा कर सोमैया कॉलेज में साइंस में दाख़िल करवा कर ,सब से पहले पहले मरहूम अल्हाज क़मरुद्दीन मुंशी के घर ले गए। कुछ वाक़ेआत ज़हन पर नक़्श होजाते हैं ,भुलाना चाहे तो भी भूल नहीं सकता। मक़ान के बाहेर सुहिला और समीना छोटी साइकिल पर खेल रही थी (अब दोनों पोतो ,पोतिया ,नवासे नवासी वाली होगयी है )। इस घर से ऐसी निस्बत हुवी दो छोटी बहने मिली ,सज्जाद तारिक़ और ज़ाकिरा भाभी जैसी दो बामुर्रवत बाअख़लाक़ शख्सियतों से तार्रुफ़ हुवा ,रज़िया ख़ाला क़मरुद्दीन मुंशी जैसी बावक़ार शख्सियतों का प्यार मिला। ये घर मेरे और सादिक़ भाई के लिए नखलिस्तान (Oasis ) की हैसियत रखता था। जब भी जली रोटियों ,अध् पकी सब्ज़ियों के खाने से तंग आजाते, उनके घर पहुँच जाते। ईद ,मुहर्रम ,नियाज़ में उनके घर दावत होती। ये मामला मेरे सादिक़ भाई के साथ ही नहीं था बल्कि हर किसी के साथ था । पहले में रज़िया खाला का भांजा हुवा करता था ,शगुफ्ता से शादी के बाद मुझे दुहरा शरफ़ हासिल हुवा ,में उनका दामाद भी बन गया।
अजीब इत्तेफ़ाक़ था के सादिक़ भाई के इंतेक़ाल की खबर में तारिक़ भाईजान तक न पहुंचा सका कुछ रोज़ बाद उनेह खबर मिली। भाईजान मिले गले लगाया ,मिज़ाज पुरसी की एक जुमला जिस में न शिकायत थी न सरज़निश "रागिब दादाभाई के इंतेक़ाल पर तुम मुझे कैसे भूल सकते हो " ये होते है आला खानदान वालों के अख़लाक़। तारिक़ भाईजान ने नेरुल ही में घर खरीद कर रिहाइश इख़्तियार कर ली है। नेरुल जुमा मस्जिद में उनसे और खालिद से मुलाक़ातें होती रहती है। शफ़क़त से पूछते हैं "कैसे हो " अल्लाह उनेह हमारे सर पर सलामत रखे आमीन।
लोग अच्छे हैं बहुत दिल में उतर जाते हैं
एक बुराई है तो बस ये है के मर जाते हैं
मरहूम अल्हाज क़मरुद्दीन मुंशी की Planning का में हमेशा क़ायल रहा हूँ। Second home का जिस वक़्त concept भी नहीं था मरहूम ने नवापुर ताई वाडा मोहल्ले में पुर सुकून माहौल में खूबसूरत बांग्ला नुमा घर खरीदा था। घर से १ किलोमीटर दुरी पर फार्म हाउस था जहाँ AWIS Poultry Farm भी बनाया था। अपनी अहलिया रज़िया बेगम के इंतेक़ाल के चंद सालों बाद इसी पुऱ सुकूं माहौल में 24th July 2007 को आखरी सांस ली नवापुर के बड़े क़ब्रस्तान में अपनी अहलिया रज़िया बेगम और क़रीबी रिश्तेदारों के बीच आराम फरमा हैं। अल्लाह मरहूम को अपनी जवारे रहमत में आफ़ियत के साथ जगह अता फरमाए आमीन सुम्मा आमीन।
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