किनारा विलेज रेस्टॉरेंट /ढाबा -bonsai पौदे जैसा
मेरा बच्पन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई
सुना था हर आदमी में एक बच्चा छुपा होता है ,या ज़ेहन के किसी कोने में कुछ ख्वाब /यादें /ज़ज़्बात छुपे होतें हैं। और हम उन खवहिशों को किसी सूरत में पूरा होते देखना चाहते हैं। हर कोई देहात से शहर में आय है। आज से कुछ साल पहले तक हम सब छोटे छोटे देहातों के बासी हुवा करते थे। खुली हवा में साँस लेना, सितारों ,चांदनी, खुले आसमान तले सोना। बात होती हेक्टर ,एकर ज़मींन की। खेतों फसलों के बीच उधम मचाने का कुछ और ही मज़ा था। फिर दूध भी हमारे सामने जानवरों के थनों से धोया जाता था। आज बच्चों से पुछा जाये के दूध कहा से आता हैं ,जवाब मिलेगा डेरी से। नेचर से दूरी इस तरह बढ़ती रही , तो अंजाम खुदा जाने! पहले तो छुटियों में दादा/दादी /नाना /नानी से मिलने बड़े चाव से जाया जाता था। अब तो नाज़ुक रिश्तें भी ख़त्म हो गए हैं। लोग धुल मिटटी से इतने डरने लगे हैं ,तो क्या शहरों की फज़ा को कारखानों ,कार के धुवें ने बर्बाद नहीं कर दिया हैं?
किनारा ढाबा /रेस्टॉरंट ,थीम विल्लज की शक्ल में बनाया गया है। मुम्बई से ६० किलो मीटर दूरी पर लोनावाल से ३ किलो मीटर दूर पुराने मुम्बा पूना हाईवे पर, शहरों की ज़िन्दगी से तंग लोग कुछ सुकून भरे पल गुजरने यहाँ पहुँच जातें हैं। bonsai मैं ने इसलिए कहा के जिस तरह शहरी लोग छोटे छोटे पौदों पर फल और सब्ज़ियां ऊगा कर ख़ुश होजातें हैं , खुले खुले मकानों की जगह २०*१० के फ्लैट में रहते हैं। किनारा विलेज भी उसी शक्ल पर बनाया गया है। लेकिन धुल भरी सड़कों की जगह कंक्रीट ब्लोग्स लगे हैं। साफ शफाफ टॉयलेट हैं। उम्दा किस्म के खाने लेकिन दाम उसी वैसे ही । नील गाय का दूध भी मिलेगा लेकिन आसमान छूती कीमत पर यानि १४०० किलो। कबाड़ियों की दुकान से उठायी वस्तुवें पोलिश कर सलीके से रखा गया है। बड़ी बड़ी संदूकें जिन में किसी ज़माने में ख़ज़ाने रखे जातें थे ,बड़े बड़े तालों से बंद, पूरा यक़ीन है खाली ही होंगी। लकड़ी से बनी अलमारियां , पुराने ज़माने की खाट पर बिस्तर बिछा सोने की व्यवस्था भी है। फर्नीचर ,बैल गाडी, बैल नादारद । ऊंट ,घोड़े की सवारी ,palmist ,मेहंदी आर्टिस्ट। live ग़ज़ल का प्रोग्रम लेकिन स्टेज के सामने बोर्ड लगा है "dancing is strictly prohibited " अक़्ल में बात आती ही नहीं के ग़ज़ल पर कौन डांस कर सकता है ?
हम शहरी लोग खूबसूरत लिबास पर थिगल (patch ) लगाने की आदत से मजबूर हैं।
मेरा बच्पन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई
सुना था हर आदमी में एक बच्चा छुपा होता है ,या ज़ेहन के किसी कोने में कुछ ख्वाब /यादें /ज़ज़्बात छुपे होतें हैं। और हम उन खवहिशों को किसी सूरत में पूरा होते देखना चाहते हैं। हर कोई देहात से शहर में आय है। आज से कुछ साल पहले तक हम सब छोटे छोटे देहातों के बासी हुवा करते थे। खुली हवा में साँस लेना, सितारों ,चांदनी, खुले आसमान तले सोना। बात होती हेक्टर ,एकर ज़मींन की। खेतों फसलों के बीच उधम मचाने का कुछ और ही मज़ा था। फिर दूध भी हमारे सामने जानवरों के थनों से धोया जाता था। आज बच्चों से पुछा जाये के दूध कहा से आता हैं ,जवाब मिलेगा डेरी से। नेचर से दूरी इस तरह बढ़ती रही , तो अंजाम खुदा जाने! पहले तो छुटियों में दादा/दादी /नाना /नानी से मिलने बड़े चाव से जाया जाता था। अब तो नाज़ुक रिश्तें भी ख़त्म हो गए हैं। लोग धुल मिटटी से इतने डरने लगे हैं ,तो क्या शहरों की फज़ा को कारखानों ,कार के धुवें ने बर्बाद नहीं कर दिया हैं?
किनारा ढाबा /रेस्टॉरंट ,थीम विल्लज की शक्ल में बनाया गया है। मुम्बई से ६० किलो मीटर दूरी पर लोनावाल से ३ किलो मीटर दूर पुराने मुम्बा पूना हाईवे पर, शहरों की ज़िन्दगी से तंग लोग कुछ सुकून भरे पल गुजरने यहाँ पहुँच जातें हैं। bonsai मैं ने इसलिए कहा के जिस तरह शहरी लोग छोटे छोटे पौदों पर फल और सब्ज़ियां ऊगा कर ख़ुश होजातें हैं , खुले खुले मकानों की जगह २०*१० के फ्लैट में रहते हैं। किनारा विलेज भी उसी शक्ल पर बनाया गया है। लेकिन धुल भरी सड़कों की जगह कंक्रीट ब्लोग्स लगे हैं। साफ शफाफ टॉयलेट हैं। उम्दा किस्म के खाने लेकिन दाम उसी वैसे ही । नील गाय का दूध भी मिलेगा लेकिन आसमान छूती कीमत पर यानि १४०० किलो। कबाड़ियों की दुकान से उठायी वस्तुवें पोलिश कर सलीके से रखा गया है। बड़ी बड़ी संदूकें जिन में किसी ज़माने में ख़ज़ाने रखे जातें थे ,बड़े बड़े तालों से बंद, पूरा यक़ीन है खाली ही होंगी। लकड़ी से बनी अलमारियां , पुराने ज़माने की खाट पर बिस्तर बिछा सोने की व्यवस्था भी है। फर्नीचर ,बैल गाडी, बैल नादारद । ऊंट ,घोड़े की सवारी ,palmist ,मेहंदी आर्टिस्ट। live ग़ज़ल का प्रोग्रम लेकिन स्टेज के सामने बोर्ड लगा है "dancing is strictly prohibited " अक़्ल में बात आती ही नहीं के ग़ज़ल पर कौन डांस कर सकता है ?
हम शहरी लोग खूबसूरत लिबास पर थिगल (patch ) लगाने की आदत से मजबूर हैं।
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