बुधवार, 22 मार्च 2017

इक़्कीसवीं सदी के हिंदुस्तान की दो तस्वीरें

                                        इक़्कीसवीं सदी के हिंदुस्तान की दो तस्वीरें
तर्रकी (progress ) की दौड़ में हिंदुस्तान ने अमेरिका ,यूरोप की बराबरी कर ली है। अब तो एक ही वक़्त में १०५ सय्यारे (satellites ) हमारी ज़मीन से खला (space ) में  कामयाबी से छोड़े गएँ ,नयूक्लेअर हथ्यार ,बेहतरीन सड़कें ,पुल ,कारें ,ऊंची ऊंची बिल्डिंगें सोने पे सुहागा अरब पतियों  की हिंदुस्तान जैसे मुल्क में कमी नहीं हैं।
    कुछ रोज़ पहले times of India में एक ख़बर पड़ कर शर्म से सर झुक गया। महाराष्ट्र जिसे हिंदुस्तान की सब से ज़ियादा progressive states में जाना जाता है ,में पंढरपुर शहर ( ज़िल्ला शोलापुर )में  आषाढ़ी एकादशी के अवसर पर ६ लाख भक्त  विठोबा टेम्ले के दर्शन के लिए जमा होतें हैं। सब से बड़ी समस्या drainage system न होने से सफाई कर्मचारियों को toilet disposal के लिए हाथों से काम करना होता है। कोर्ट ने महाराष्ट्र गवर्नमेंट को डाट भी पिलाई थी। सायेंस ,technology ने इतनी तर्रिकी की है। किस तरह यह ज़लील काम लोगों से करवाया जाता है। सोच कर अक़ल हैरत ज़दा होजाती है। 

बुधवार, 8 मार्च 2017

किनारा विलेज रेस्टॉरेंट /ढाबा -bonsai पौदे जैसा

                                   किनारा विलेज रेस्टॉरेंट /ढाबा -bonsai  पौदे जैसा





 मेरा बच्पन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई
सुना था हर आदमी में एक बच्चा छुपा होता है ,या ज़ेहन के किसी कोने में कुछ ख्वाब /यादें /ज़ज़्बात छुपे होतें हैं। और हम उन खवहिशों को किसी सूरत में पूरा होते देखना चाहते हैं। हर कोई देहात से शहर में आय है। आज से कुछ साल पहले तक हम सब छोटे छोटे देहातों के बासी हुवा करते थे। खुली हवा  में साँस लेना, सितारों ,चांदनी, खुले  आसमान  तले सोना। बात होती हेक्टर ,एकर ज़मींन की। खेतों फसलों के बीच उधम मचाने का कुछ और ही मज़ा था। फिर दूध भी हमारे सामने जानवरों के थनों से धोया जाता था। आज बच्चों से पुछा जाये के दूध कहा से आता हैं ,जवाब मिलेगा डेरी से। नेचर से दूरी इस तरह बढ़ती रही , तो अंजाम खुदा जाने! पहले तो छुटियों में दादा/दादी /नाना /नानी से मिलने बड़े चाव से जाया जाता था। अब तो नाज़ुक रिश्तें भी ख़त्म हो गए हैं। लोग धुल मिटटी से इतने डरने लगे हैं ,तो   क्या शहरों की फज़ा को कारखानों ,कार के धुवें ने बर्बाद नहीं कर दिया हैं?
     किनारा ढाबा /रेस्टॉरंट ,थीम विल्लज की शक्ल में बनाया गया है। मुम्बई से ६० किलो मीटर दूरी पर लोनावाल से ३ किलो मीटर दूर पुराने मुम्बा पूना हाईवे पर, शहरों की ज़िन्दगी से तंग लोग कुछ सुकून भरे पल गुजरने यहाँ पहुँच जातें हैं। bonsai मैं ने इसलिए कहा के जिस तरह शहरी  लोग छोटे छोटे पौदों पर फल और सब्ज़ियां ऊगा कर ख़ुश  होजातें हैं , खुले खुले मकानों की जगह २०*१० के फ्लैट में रहते हैं। किनारा विलेज भी उसी शक्ल पर बनाया गया है। लेकिन धुल  भरी सड़कों की जगह  कंक्रीट ब्लोग्स लगे हैं। साफ शफाफ टॉयलेट हैं। उम्दा किस्म के खाने लेकिन दाम उसी वैसे ही । नील गाय का दूध भी मिलेगा लेकिन आसमान छूती  कीमत पर यानि  १४०० किलो। कबाड़ियों की दुकान से उठायी वस्तुवें पोलिश कर सलीके से रखा गया है। बड़ी  बड़ी संदूकें जिन में किसी ज़माने में ख़ज़ाने रखे जातें थे ,बड़े बड़े तालों से बंद, पूरा यक़ीन है खाली ही होंगी। लकड़ी से बनी अलमारियां , पुराने ज़माने की खाट पर बिस्तर बिछा सोने की व्यवस्था भी है। फर्नीचर ,बैल गाडी, बैल नादारद । ऊंट ,घोड़े की सवारी ,palmist ,मेहंदी आर्टिस्ट। live ग़ज़ल का प्रोग्रम लेकिन स्टेज के सामने बोर्ड लगा है "dancing is strictly prohibited " अक़्ल   में बात आती  ही नहीं के ग़ज़ल पर कौन डांस कर सकता है ?
हम शहरी लोग खूबसूरत लिबास पर थिगल (patch ) लगाने की आदत से मजबूर हैं।

रविवार, 5 मार्च 2017

कार्ला केव्स -तारीख के पन्नो पे लिखी दास्तान

                                              कार्ला केव्स -तारीख के पन्नो पे लिखी दास्तान








हिंदुस्तान का चप्पा चप्पा तारीखी इमारतों ,खंडरों ,गुफाओं से भरा पड़ा है। बद नसीबी, हम हिंदुस्तानी नयी तहज़ीब से इतने मुतास्सिर हैं के यूरोप ,अमेरिका ,रोम की सैर करेंगें लेकिन इतनी तौफीक नहीं होती कभी आस पास ही नज़र दौड़ा लेते। एलफेंटा केव्स ,अजंता ,एल्लोरा कितने लोगों ने देखा होंगा ,  हालांके पूरी दुनिया के टूरिस्ट इन मक़ामात की सैर लाज़मी समझतें है। वे जब ऐसे मुक़ाम पर पहुचतें हैं तो पूरी मालूमात के साथ पहुंचतें हैं। हमारें लोकल गाइड्स से ज़ियादा उनेह पता होता है।
   पिछले महीने १३  फ़रवरी-२०१७ पूना से लौटतें हुवे कार्ला  केव्स देखने का इत्तेफ़ाक़ हुवा। लोनावाला से ५ किलो मीटर दूरी पर पुराने मुम्बई पूना रोड  के करीब ,इंद्रायणी हिल्स पर इन केव्स को पहाड़ काट काट कर बनाया गया है। १०० मीटर उचाई पर १६  केव्स बनाये गएँ हैं। जिन में से एक चैतनग्रह और बाकी १५ विहारस कहलातें हैं। चैतनग्रह प्रेयर करने की जगह है जो एक स्तूपा एक बड़े हाल के किनारे ,दोनों जानिब बड़े बड़े सत्मभों से सजाया गया है।स्तम्भ भी ख़ूबसूरत मूर्तियों से सजे हैं। हॉल में इंट्री पर खूबसूरत दालान हैं जो ख़ूबसूरत मेहराबों से सजे हैं , बड़े बड़े  हाथियों  को दालान की दोनों जानिब  सलीके से पत्थरों में तराश के बनाया गया है। ये हीनयान ,महायान सेक्ट बुद्धिस्ट की यादगार हैं। १५ विहारस केव्स भक्तों और बाहर से आने वालों के लिए छोटे छोटे रूम्स की शक्ल में बने हैं।  पत्थर से बने बेड्स , जिन पर लेट कर लोग आराम करतें होंगे। ये १५ केव्स काफी ऊंचाई २ मंज़िल इमारत की शक्ल में बने हैं। पहुचने के लिए पत्थरों की सीढ़ियां भी बनी हैं। Archeological Survey Of India की दी मालूमात से पता चलता है के ये केव्स 1st और 6 AD के दरमियान बनाये गएँ हैं। और इन केव्स को बनाने में बनारस ,नालासोपारा , मराठी प्रिन्स और monks की माली मदद और कोशिश शामिल हैं। 
          पत्थर सुलग रहें थे कोई नक़्श पा (पैर का निशान ) न था
    ६ सदियों तक लगातार काम करने वाले ,कई generations इस काम को करते करते ख़त्म होगयी होंगी। न मॉडर्न ज़माने के क्रेन थे ने मशीने , छीनी  हथोड़ों से पत्थरों की चटानों को काट कर उन में दिल धड़काने वाले  ये आर्टिसंस ये मेमार कितनी मुशक्त ,जाफिशानी से उन लोगों ने काम किया होंगा । क्या पाकीज़ा माहौल बनता होंगा ,जब बुद्ध भिकशू इन मोहबत ,मेहनत ,जिगर का लहू करने वालों की प्रेयर रूम में स्तुपा के इर्द गिर्द खुश्बूं से महकते माहौल में ऊपर वाले की याद में डूब जाते होंगें। यकीनकन उनेह उस रब ,God ,प्रमेश्वर की कुर्बत ,नज़दीकी हासिल होंगी।
     कुछ इस तरह तै की है हम ने अपनी मंज़िलें
     गिर पड़े ,गिर के उठे ,उठ के चले
   आज के मॉडर्न ज़माने के हम लोग कार्ला केव्स तक पहुचने का आधा सफर कर से पूरा किया। ५० मीटर १५० सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते पसीना निकल गया। हर कदम पर cold drinks ,छाछ ,मिठाई और ठंडे पानी की दुकाने थी। चंद  कदम चल दुकान वालों से पूँछतें "कितनी सीढ़ियां और बाकी है " गिरते पड़ते ऊपर पहुंचें। कुछ नवजवान केव्स  देख मायूस हुवे। हवा में जुमला उछाल दिया " खोदा पहाड़ निकला चूहा "  साहब ,बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद। हम एयर कंडीशनों में रहने  और सफर करने वाले ,नर्म गद्दों पर सोने वाले क्या उन लोगों की तकलीफ का अहसास कर सकतें हैं ,  पूर्वज जो पथरों पर सोतें ,मौसमों की सख्त सर्दियाँ ,गर्मियां और बारिशें झेल कर ६ सदियाँ पहाड़ों का सीना  चीर कर आने वाली नस्ल के लिए अनमिट यादगारें,निशाँ  छोड़ गएँ।