थोड़ा सा रूमानी (romantic ) होजायें
उर्दू शायरी में शायर तखल्लुस जिसे वह शेर की आखरी पंक्ती (मक्ते) में इस्तेमाल करता है। मोमिन उर्दू के मशहूर शायर थे उनका एक शेर जिसमें उनोह्नें तख्खलुस का इस्तेमाल किया है
उम्र तो सारी कटी इश्क इ बूतां में मोमिन
आखरी वक़्त में क्या खाक मुसलमान होंगे
गुलज़ार का नाम सम्पूर्ण सिंह है ,फिल्मों से जुड़े हैं। बडी standard शायरी करते हैं। फिल्म ख़ामोशी (पुरानी ) उनका लिखा एक गीत
सिर्फ अहसास हैं यह रूह से महसूस करों
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो
बहुत हिट हुवा था।
शायरी में गुलज़ार साहब जानम तखल्लुस करते हैं। बहुत काम लोगों ने उन की इस नज़्म को सुना होंगा
नज़्म उलझी हुवी है सीने में
शेर अटके हुवे हैं होंटों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठ हुवा हूँ में जानम
साद कागज़ पे लिख के नाम तेरा
एक तेरा नाम ही मुकम्मिल है
इस से बेहतर भी क्या नज़्म होंगी
गुलज़ार साहब की दूसरी नज़्म जिसमें उनोह्नें अपने तखल्लुस जानम का किस खूबसूरती से इस्तेमाल किया है पेश खिदमत है।
पहले पहले उफ़क़ के खुलेने से
में ने अपनी नमाज़ कह ली थी
तेरी गोदी की ठंडी मस्जिद में
शाम होते ही फिर करीब आकर
तेरे चेहरे को लेके हाथों में
तेरे होंटो को चूम कर जानम, रोज़ा खोल तेरे नमाज़ी नें
गुलज़ार साहब अपनी उम्र की Diamond Jobli (७५ साल ) पुरे कर चुके हैं लेकिन अब भी उनकी शायरी में वही ताज़गी, वही शग़ुफ्तगी ,वही बांकपन बाकी हैं। अभी हाल में उनोह्नें एक नज़्म "किताब" (उन्वान) topic पे लिखी हैं। पढ़ कर अहसास होता है , हम कॉलेज के दौर में लौट गए हैं। जब महबूब को खूबसूरत खत लिख कर खुशबु में भिगो कर किताबो का लेंन देन होता था।मेरे महबूब फिल्म की वह नज़्म जिस में दो चाहने वालो की पहली मुलाकात ,एक दूसरे से टकराना ,किताबों का गिर पड़ना ,मेहबूब का अपने चेहरे से नक़ाब उल्ट देना इत्यादि । किस तरह computer ने हम से किताब पढ़ने का वह खुबससोर्ट अहसास छीन लिया। नज़्म मुलाहिज़ा फरमाएं।
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सुहबत में कटा करती थी वह अब अक्सर
गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के पर्दों पर
इन्हें अब नीन्द में चलने की आदत होगयी हैं
जो कदरें वह सुनाती थी के जिन के cell कभी मरतें नहीं थें
जो रिश्तें वह सुनाती थी वह सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफहा पलटता हूँ तो एक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टंड लागतें हैं सब अलफ़ाज़
जिन पर कोई माने नहीं उगते
ज़बान पे ज़ायक़ा आता था जो सफहा पलटने का
अब वह उंगली क्लिक करने से एक झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह ब तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाति राब्ता था काट गया है
कभी सीने प रख कर लेट जाते थे
कभी घुटनों को अपनी रहल की सूरत में बना कर ,नीम सजदे में पढ़ा करते थे
वह सारा इल्म तो मिलता रहेंगा आईन्दा भी
मगर वह जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुवे रुककेँ
किताबें मांगनें ,गिरने , उठाने से जो रिश्तें बनतें थे उनका क्या होंगे ?
उर्दू शायरी में शायर तखल्लुस जिसे वह शेर की आखरी पंक्ती (मक्ते) में इस्तेमाल करता है। मोमिन उर्दू के मशहूर शायर थे उनका एक शेर जिसमें उनोह्नें तख्खलुस का इस्तेमाल किया है
उम्र तो सारी कटी इश्क इ बूतां में मोमिन
आखरी वक़्त में क्या खाक मुसलमान होंगे
गुलज़ार का नाम सम्पूर्ण सिंह है ,फिल्मों से जुड़े हैं। बडी standard शायरी करते हैं। फिल्म ख़ामोशी (पुरानी ) उनका लिखा एक गीत
सिर्फ अहसास हैं यह रूह से महसूस करों
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो
बहुत हिट हुवा था।
शायरी में गुलज़ार साहब जानम तखल्लुस करते हैं। बहुत काम लोगों ने उन की इस नज़्म को सुना होंगा
नज़्म उलझी हुवी है सीने में
शेर अटके हुवे हैं होंटों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठ हुवा हूँ में जानम
साद कागज़ पे लिख के नाम तेरा
एक तेरा नाम ही मुकम्मिल है
इस से बेहतर भी क्या नज़्म होंगी
गुलज़ार साहब की दूसरी नज़्म जिसमें उनोह्नें अपने तखल्लुस जानम का किस खूबसूरती से इस्तेमाल किया है पेश खिदमत है।
पहले पहले उफ़क़ के खुलेने से
में ने अपनी नमाज़ कह ली थी
तेरी गोदी की ठंडी मस्जिद में
शाम होते ही फिर करीब आकर
तेरे चेहरे को लेके हाथों में
तेरे होंटो को चूम कर जानम, रोज़ा खोल तेरे नमाज़ी नें
गुलज़ार साहब अपनी उम्र की Diamond Jobli (७५ साल ) पुरे कर चुके हैं लेकिन अब भी उनकी शायरी में वही ताज़गी, वही शग़ुफ्तगी ,वही बांकपन बाकी हैं। अभी हाल में उनोह्नें एक नज़्म "किताब" (उन्वान) topic पे लिखी हैं। पढ़ कर अहसास होता है , हम कॉलेज के दौर में लौट गए हैं। जब महबूब को खूबसूरत खत लिख कर खुशबु में भिगो कर किताबो का लेंन देन होता था।मेरे महबूब फिल्म की वह नज़्म जिस में दो चाहने वालो की पहली मुलाकात ,एक दूसरे से टकराना ,किताबों का गिर पड़ना ,मेहबूब का अपने चेहरे से नक़ाब उल्ट देना इत्यादि । किस तरह computer ने हम से किताब पढ़ने का वह खुबससोर्ट अहसास छीन लिया। नज़्म मुलाहिज़ा फरमाएं।
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सुहबत में कटा करती थी वह अब अक्सर
गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के पर्दों पर
इन्हें अब नीन्द में चलने की आदत होगयी हैं
जो कदरें वह सुनाती थी के जिन के cell कभी मरतें नहीं थें
जो रिश्तें वह सुनाती थी वह सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफहा पलटता हूँ तो एक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टंड लागतें हैं सब अलफ़ाज़
जिन पर कोई माने नहीं उगते
ज़बान पे ज़ायक़ा आता था जो सफहा पलटने का
अब वह उंगली क्लिक करने से एक झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह ब तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाति राब्ता था काट गया है
कभी सीने प रख कर लेट जाते थे
कभी घुटनों को अपनी रहल की सूरत में बना कर ,नीम सजदे में पढ़ा करते थे
वह सारा इल्म तो मिलता रहेंगा आईन्दा भी
मगर वह जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुवे रुककेँ
किताबें मांगनें ,गिरने , उठाने से जो रिश्तें बनतें थे उनका क्या होंगे ?