बुधवार, 25 जनवरी 2017

थोड़ा सा रूमानी (romantic ) होजायें

                                             थोड़ा सा रूमानी (romantic ) होजायें
उर्दू शायरी में शायर तखल्लुस जिसे वह शेर की आखरी पंक्ती (मक्ते) में इस्तेमाल  करता है। मोमिन उर्दू के मशहूर शायर थे उनका एक शेर जिसमें  उनोह्नें तख्खलुस का इस्तेमाल किया है
उम्र तो सारी कटी इश्क इ बूतां में मोमिन
आखरी वक़्त में क्या खाक मुसलमान होंगे
गुलज़ार का नाम सम्पूर्ण सिंह है ,फिल्मों से जुड़े हैं। बडी standard शायरी करते हैं। फिल्म ख़ामोशी (पुरानी ) उनका लिखा एक गीत
सिर्फ अहसास हैं यह रूह से महसूस करों
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो
बहुत हिट हुवा था।
   शायरी में गुलज़ार साहब जानम तखल्लुस करते हैं। बहुत काम लोगों ने उन की इस नज़्म को सुना होंगा
नज़्म उलझी हुवी है सीने में
शेर अटके हुवे हैं होंटों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठ हुवा हूँ में जानम
साद कागज़ पे लिख के नाम तेरा
एक तेरा नाम ही मुकम्मिल है
इस से बेहतर भी क्या नज़्म होंगी
गुलज़ार साहब की दूसरी  नज़्म जिसमें उनोह्नें अपने तखल्लुस जानम का किस खूबसूरती से इस्तेमाल किया है पेश खिदमत है।
पहले पहले उफ़क़ के खुलेने से
में ने अपनी नमाज़ कह ली थी
तेरी गोदी की ठंडी मस्जिद में
शाम होते ही फिर करीब आकर
तेरे चेहरे को लेके हाथों में
तेरे होंटो को चूम कर जानम, रोज़ा खोल तेरे नमाज़ी नें
 गुलज़ार साहब अपनी उम्र की  Diamond Jobli (७५ साल ) पुरे कर चुके हैं लेकिन अब भी उनकी शायरी में वही ताज़गी, वही शग़ुफ्तगी ,वही बांकपन बाकी हैं। अभी हाल में उनोह्नें एक नज़्म "किताब"  (उन्वान) topic पे लिखी हैं। पढ़ कर अहसास होता है , हम कॉलेज के दौर में लौट गए हैं। जब महबूब को खूबसूरत खत लिख कर खुशबु  में भिगो कर किताबो का लेंन देन होता था।मेरे महबूब फिल्म की वह नज़्म जिस में दो चाहने वालो की पहली मुलाकात ,एक दूसरे से टकराना ,किताबों का गिर पड़ना ,मेहबूब का अपने चेहरे से नक़ाब उल्ट देना इत्यादि । किस तरह computer ने हम से किताब पढ़ने का वह खुबससोर्ट अहसास छीन लिया। नज़्म मुलाहिज़ा फरमाएं।
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सुहबत में कटा करती थी वह अब अक्सर
गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के पर्दों पर
इन्हें अब नीन्द में चलने की आदत होगयी हैं
जो कदरें वह सुनाती थी के जिन के cell कभी मरतें नहीं थें
जो रिश्तें वह सुनाती थी वह सारे  उधड़े उधड़े हैं
कोई सफहा पलटता हूँ  तो एक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टंड लागतें हैं सब अलफ़ाज़
जिन पर कोई माने नहीं उगते
ज़बान पे ज़ायक़ा आता था जो सफहा पलटने का
अब वह उंगली क्लिक करने से एक झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह ब  तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाति राब्ता था काट गया है
कभी सीने प रख कर लेट जाते थे
कभी घुटनों को अपनी रहल की सूरत में बना कर ,नीम सजदे में पढ़ा करते थे
वह सारा इल्म तो मिलता रहेंगा आईन्दा भी
मगर वह जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुवे रुककेँ
किताबें मांगनें ,गिरने , उठाने से जो रिश्तें बनतें थे उनका क्या होंगे ?


मंगलवार, 24 जनवरी 2017

न जाने मेरे बाद उन पे क्या गज़री में सीरिया में चन्द ख्वाब छोड़ आया था ( सीरिया कल और आज)

   
दुनिया ने तजुर्बात व हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वह लौटा रहा हूँ में
     ३१ दिसम्बर १९९९ का दिन ख़त्म होरहा था. में सीरिया में ओमर ऑइल फील्ड जो Damacus से ६०० /७०० किलो मीटर की दूरी पर है , shell कंपनी के लिए काम कर रहा था। रूम बॉय कमरे की सफाई कर के चला गया था ,night  shift  के  इंतज़ार में ,अपने रूम में उदास बैठा था। पड़ोस में प्रदीप गुप्ता मेरे जिगरी दोस्त ,बग़ैर रूम का दरवाज़ा खटखटायें आंधी तूफ़ान की तरह दाखल हुवे। "दोस्त राग़िब  सदी ख़त्म हो रही है क्यों उदास बैठें हो ,चलो डूबते  सूरज का नज़ारा करें ,ऐसे मौकें  क़ुदरत बार बार नहीं देती"। दोनों दोस्त सूरज के सुर्ख गोले को उफ़क़ में दम तोड़ते देखते रहें ,यहाँ तक के सूरज डूब गया, २० वी सदी का खात्मा ,आक्कीसवीं सदी की शुरुवात हम लोगों ने इस तरह की ।
   ज़हन माज़ी के धुंदलकों में  उलझ जाता है
   और कुछ नक़्श तस्स्वुर में उभर आते हैं
   Graduation के बाद २० साल इंडिया में नौकरी करने के बाद ,शादी हुयी दो बच्चे हुवे। bank balance देखा तो ठन ठन गोपाल। किराये का घर ,दो बच्चीयों की पढ़ाई ,उन की शादी। दिल में एक हुक सी उठती थी जिगर जलता था। सीरिया में oil field operation का जॉब ,अल्लाह देता है तो छप्पर फाड़ के। पहली बार घर ,बाल बच्चों से दूरी हो रही थी। Gulf  Air   ३१ अक्टूबर १९९२ मुम्बई बहरीन डमस्कस  flight से रवानगी हुयी। नयी ज़िन्दगी की शुरुवात हो रही थी। बहरीन में २ घँटे transit था। जगमगाते मनामा airport को देख कर तबियत खुश होगयी। बहरीन से Damascus  तक कुछ हिंदुस्तानी साथियोँ से मुलाक़ात हुयी जो मेरे साथ ही काम करने वाले थे। मेरा हौसला बढ़ाया।सेहरा में नखलिस्तान का अहसास हुआ। इन्ही लोगों के दरमियान ज़िन्दगी के लंबे ८ साल गुज़ारे।
  मुझ से भी उड़ते हुवे लम्हे न पकडे जा सके
  में भी दुनिया की तरह हालात के चक्कर में हूँ।
  उन दिनों Omar on  shore oil field पर एक वक़्त में १५० से ज़्यादा Indians काम कर रहे थ , alfurat petroleum company , फ़ुरात  नदी के किनारे , Iraqi सरहद १० किलो मीटर दूरी पर थी। फील्ड क्या mini India जहाँ हिंदुस्तान की हर state के लोग काम कर रहे थे। केरल,तमिल नाडु,महाराष्ट्र , दिल्ली ,UP , ओरिसा, ,उत्तराखंड,पंजाब। घर से दूरी का अहसास इन यारों ने किसी हद काम कर दिया था। ड्यूटी भी एक महीना होती थी। एक महीने बाद हिंदुस्तान लौट कर १ महीना छुट्टी। ड्यूटी पर पहुँचते ही उलटी गिनती शुरू कर देते। उन दिनों टेलीफोन की इतनी सहूलत नहीं थी। हफ्ते में एक दिन ५ मिनिट के लिए घर से बात करने की इजाज़त थी। इन ५ मिनिट के इंतज़ार में हफ्ता बिताना सदिया गुजरने के बराबर होता। मौसम बड़े सख्त होते ६ महीने कड़ाके की सर्दी Temperature zero से भी काम ,कभी कभी बर्फ बारी भी होजाती थी। उस वक़्त रात की ड्यूटी क़यामत से कम न थी। गर्म कपड़ों में लिपटे होने बावजूद सर्दी हड्डियों तक पहुँच जाती थी। गर्मियां  ६ महीने ,५० डिग्री Temperature लिए आती। कभी कभी १५ दिनों तक (अजाज ) धुल मिटटी के तूफान ज़िन्दगी तंग कर देते। नाक कान बालों में मिटटी ही मिट्टी । १ मीटर दूर की चीज़ भी दिखाई नहीं पड़ती थी।
   Syrian locals मिज़ाज के नर्म होतें हैं। ८ साल वहां लोगों के बीच काम करते कभी किसी  को आपस में लड़तें नहीं देखा। Dera El Zor फील्ड से करीबी क़स्बा पड़ता था ,अक्सर लोग हमें घरों पर बुलाते। हमारे लिए बिछे जातें थे। उन लोगों  में खूबसूरती बहुत थी, सभी का रंग गोरा थे लेकिन फिर भी इंडिया से हम से Fair and lovely की  कई कई creams की tubes मँगवातें।
   साथ में काम करने वालों में मुझ से सब ज़ियादा नज़दीकी प्रदीपः गुप्ता से थी। इतने  Org anise खुश  मिज़ाज आदमी में ने बहुत काम देखेँ हैं। उन का रूम हमेशा जगमगाता होता। धुले कपडे बाक़ायदा इसत्री करके वार्डरोब में रखे होते। किताबें पढ़ने का शौक था तरतीब से साइड टेबल पर जमी होती। में उन से मज़ाकन कहा करता "जनाब गुप्ता साहब घर पर आपके होते हुए भाभी को कुछ काम न करना पड़ता होंगा"। हँसके कहतें "ज़र्रा नवाज़ी आपकी" ,गुप्ताजी Arabic  भी काफी समझ लेते थे और काम चलाऊ बोल भी लेते थे।
एक दिन local Syrian से कहा ५  किलो ज़ैतून का तेल ले आना। वह आदमी ५ किलो  ज़ैतून ( olives)  ले आया। में ने कहा "गुप्ताजी हम ने मंगाई सुरमा दानी ले आया ज़ालिम बनारस का ज़र्दा " बहुत हँसें। अलमेडा मुम्बई से था १५७ किलो वज़न लेकिन दिल सोने जैसा। हमेशा पार्टियां करता हम सब Indians को दावत खिला कर खुश होता।j p Singhथे हम सब को हँसा हँसा के बेहाल कर दे थे। सैयद नूरुद्दीन जिन के बारे में इतना ही कह सकता हूँ    
        तुम्हरी याद के जब ज़ख्म भरने लागतें हैं
        किसी बहाने तुम्ह याद करने लगते है।
 २००० में जब syria छोड़ा तो लगा, अपनी family से दूर जा रहा हूँ।  field से Damascus लौटेंते हुवे Palmyra में कुछ देर ठहरते थे। हज़ारों साल पुराने खंडर पर अलविदाई नज़र डालतें हुवे कभी खवाब में भी नहीं सोचा था के इन खंडरों को कोई तोड़ सकता है। आज १७ साल बाद सीरिया का हुलिया (shape ) ही बदल गया है। पूरा मुल्क खंडरात में बदल गया है।  जंग से तंग आकर Syrian पैदल हज़रों मील का सफर कर तुर्की ,यूरोप ,रशिया में पनाह लेना चाहते हैं। hospital ,school ,civilian areas को bombarding कर तबाह किया जा रहा है। में सोचता हूँ कहाँ होंगें मेरे साथ काम करने वाले लोकल सिरिअन्स (ग़स्सान ,ईसा ,अदनान ) . दिल खून के आंसू रोने लगता है। अपनी खुश नसीबी पर अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ।  हम इतने पुर सूकून (peaceful )माहौल में ज़िन्दगी गुज़ार रहें हैं। अल्लाह इस मुल्क को बुरी नज़र से बचाएं।  आमीन 

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

yadein sudan ki (2000-2011 Heglig field 1000 KM From Khartoum )


                                       


                                base camp party


Diffra base camp










local sudani 






कल वक़्त से लम्हा गिरा कहीं
                       वहां दास्ताँन थी, लम्हा कहीं नहीं
  सूडान में ज़िन्दगी का लंबा अर्सा ११ साल बिताने का इत्तेफ़ाक़ हुआ। oil field का जॉब था। nature (कुदरत ) को करीब से देखने का मौक़ा मिला। रंग बी रंगी परिंदे ,चीतेँ ,हाथी जंगल में घूमते नज़र आ जातें थे। कभी कभी लाखों अबाबीलें (छोटी चिड़ियाँ ) आसमान पर छा जाती, के सूरज भी थोड़ी देर के लिए नज़रों से छुप जाता। वहां के आदिवासी बचें  हाथों में गुलेल लिए पत्थर घूमा  कर फेंकतें, कई १०० चिड़ियाँ शहीद हो कर ज़मीन पर गिर जाती। ज़मीन लहू
लहान हो जाती ,बचें उन चिडयों को उठा कर कच्चा चबा जातें ,गड़ों में जमा पानी जानवरो की तरह पैर हांथों पर झुक कर पी लेतें, शायद इस पानी को पी कर हम शहरी लोग जान से हाथ धो बैठें । । सांप मुंगूस की बोहतात थी। एक दिन वहां के ज़हरीले सांप black mamba  भी देखने को मिला।
  सूडान को grass land भी कहा जाता है। जून जुलाई में गर्मी के मौसम के ख़त्म होते ही बंजर ज़मीन पर बारिश की
हलकी फुहारें पड़ते ही ६/७ फ़ीट की घास उग आती है। ज़मीन इतनी नरम के पंजे ६ इंच ज़मीन में गड जातें ,निकालना मुश्किल होजाता ,हम safety shoe पहने होतें तलवों पर कई कई इंच की तहँ जम जाती । ज़मीन इतनी उपजाऊ तरबूज़ खा कर बीज हम ज़मीन पर फ़ेंक देतें थे, कुछ रोज़ बाद बेल पर बड़े बड़े तरबूज़ लग जातें। इसकी वजह थी वहां के आदिवासी जिन्ह बग्गरह शायद हिंदुस्तान में हम लोग बंजारा कहतें हैं ६ महीने बारिश से बचने के लिए छोटें छोटें गांव में शिफ्ट होजातें है बारिश के ख़त्म होते ही नवम्बर/दिसम्बर में अपनी  हज़ारों बकरियों ,ऊंटों के साथ जंगलों में आजातें है,सदियों ये होता आ रहा है, जानवरों की गोबर पेशाब से ज़मीं ज़रखेज़ तो होनी ही है ,फिर वहां कोई खेती बाड़ी भी नहीं करता । एक एक बग्गरा अपने छोटे  से खानदान के साथ हज़ारों जानवर लिए घुमतें। पता नहीं वह लोग इतने जानवरों को किस तरह काबू में रख पातें हैं , यह भी एक आर्ट ही  है। सूडान से अछी नस्ल के ऊंट सुआदि अरबिया export किये जातें हैं। इन बग्गारों का रहन सहन सादा है। कही पड़ाव डालना है ज़मीन साफ़ कर ली घास की झोपडी बना ली कुछ
दिन गुज़ार कर आगे बढ़ गए। हम तहज़ीब याफ्ता लोग ज़िंदगी गुजरने के लिए बेइंतेहा ज़रूरियातें ज़िंगगी जमा कर के
भी इतने खुश इतने मुत्मइन नहीं होतें जितने यह लोग होतें हैं। शादी भी इन लोगों की इतनी ही सादगी से होती। हमारे कैंप में छोटी सी मस्जिद थी ,३/४ लड़की तरफ से और ३/४ लड़के की तरफ से लोग मस्जिद आजाते ,मौलाना निकाह पढ़ा देते ,साथ में थोड़े चॉकलेट  ला कर बाँट देते ,निकाह हो जाता।
ख्वाब था जो आँखों ने देखा था
        जंगल की चांदनी रात का मंज़र ,चाँद आस्मां पर रोशन गोले की मानिंद, खुनक रातों में चांदनी में नहा कर वह मंज़र आँखों में  जज़्ब हो कर रह गएँ हैं। जाड़े की वह कुहरे से मामूर सुबहें ,बरसातों के वह मौसम जब बिजली की कड़क से माहौल झनझना उठता था।खुशनुमा शामें।
        भला किसीने कभी राग व बू को पकड़ा है
        शफ़क़ को क़ैद में रखा हवा को बंद किया

        हर एक लम्हा जैसे गुरेज़ां हैं जैसे दुश्मन है
      9 साल होगये सुडान को अलविदा कहे। राख को कुरेदने से जिस तरह कुछ चिंगारियां निकल पड़ती है। कभी कभी
 आदमी past  में जीना चाहता है । लेकिन क्या करें वक़्त रुकता नहीं कहीं टिक कर .लम्हों के ढेर तले present माज़ी होजाता ,यादें बाक़ी रह जाती हैं।
वहां दास्ताँ थी लम्हा कहीं नहीं।