सोमवार, 26 दिसंबर 2016

नवीद मेरी नज़र से

९ फ़रवरी २००९  नवीद क़े  वलीमे पर पढ़ी गयी एक तहरीर
पुराने ज़माने में शादी में सेहरा पढ़ने का रिवाज होता था। शायरों को दूल्हे और बारातियों की जानिब से इनाम व इकराम से नवाज़ा जाता। ज़माना बदल गया साथ साथ लोगों के मिज़ाज भी बदल गएँ हैं। एक ज़माना था दूल्हा  सहारे से लदा फदा होता शायर इस किस्म के शेर पढ़ते।
कोन कहता है दूल्हे के सर पे सेहरा है
सर पे मखना है मखने पे सेहरा है
     आज नवीद की शादी के मौके पर सेहरा तो नहीं पढ़ सकता  क्यूंकि में शाइर नहीं ,एक मुख़्तसर सा खाक़ा पेश कर रहा हूँ।
      नवीद की पैदाइश पर एरंडोल से रवाना किया टेलीग्राम में ने ही receive किया था और हमारे वालिद मोहतरम (नवीद के दादा ) को पढ़ कर सुनाया था। पोते की पैदाइश की खबर सुन कर बहुत ख़ुश हुवे थे ढेरों दुवाएँ दी थी। टेलीग्राम पर याद आया जलगांव शहर में  किसी ज़माने में हमारे मोहल्ले में पड़े लिखे लोग काम थे। उस वक़्त किसी के घर मौत या किसी की बीमारी की खबर देने के लिए टेलीग्राम रवाना किया जाता था। मोहल्ले में किसी के घर भी टेलीग्राम आता तो हमारे वालिद से पढ़वाया जाता। एक दिन मोहल्ले में किसी के घर टेलीग्राम आया, सारा खानदान रोतें पीटतें वालिद साहेब के पास पुहंचा ,टेलीग्राम पढ़ कर पता चला अहमदाबाद में ज़लज़ले के हल्क़े झटकें लगे थे। वह  earthquake का मतलब नहीं समझ सके थे। मतलब जान कर वे हँसते ,अब्बा को दुवाएं देते घऱ लौटें।
     मेरी शादी के वक़्त नवीद २ साल के थे। उस की शगुफ्ता ऑंटी को अनि कहा करता था। उन के वालिद हमारे अब्बा को ख़त लिखा करते थे ,उन में नवीद अंजुम भी आड़ी तिरछी लकीरें खेंच दिया करता। इस लिखावट को अब्बा decode कर लिया करते छूपे पैग़ाम का मतलब समझ कर हमें बताते।
   नवीद के बच्पन का एक और किस्सा याद आगया ,  डॉ. वासिफ की कर्जन PHC में पोस्टिंग थी उन का स्टाफ ग़ैर मुस्लिम था। एक दिन नवीद अपने पापा को हनुमान की तस्वीर दिखा कर कहने लगा "ये अल्लाह मियां है ".अब्बा सुन कर बहुत महज़ूज़ हुवे।
    नवीद अंजुम के निकाह में जलगांव में ड्यूटी की बिना पर शरीक न होने पर ज़िन्दगी भर अफ़सोस रहेगा। सोच रहा हूँ
निकाह में उनोह ने कलमे ठीक से अदा किये या नही। इस पर मुझे बचपन का एक वाक़या याद आगया किसी करीबी
रिश्तेदार  के बच्चे की शादी थी अब्बा के पास आकर कहने लगा " खालू ज़बान नहीं उलटती कालमे याद करा दो ता के निकाह के दौरान कोई ग़लती न होजाये। अब्बा कहने लगे "बहुत जल्दी आये हो मियां ,पर थूक से कागज़ नहीं चिटकता।
      अभी में ने निकाह की तफ्सील भी नहीं सुनी है। नवीद तुम ने सेहरा बान्धा था। घोड़े पर बरात के साथ घूमे थे। घोड़े के पैर के नीचे अंडा रखा गया था या नहीं। सास ससुर ने १००० की बेल डाली थी या नहीं। इस्लाम पुरे का ब्रॉस बंड़ ,नाचते बारातियों ने जावीद अंकल की कमी ज़रूर महसूस की होंगी।
      नवीद अंजुम हमारे खानदान का इकुलता वारिस ,११ बहनों का एक भाई ,माँ बाप की आँखों का तारा ,चाची चाचाओं
का दुलारा , खाला नानी नाना का प्यारा ।  मशालाह हुलिया क्या
बयान करू ,निकलता कद , खड़ी नाक , बड़ी बड़ी आँखेँ  जो किसी हैरत नाक वाक़ये को सुन कर और भी फैल जाती है।
        नवीद अंजुम ने मुम्बई यूनिवर्सिटी की मशहूर रिज़वी कॉलेज से MBA करने के बाद तेज़ी से तर्रकि की है। में ने उसे
उस दौरान भी देखा था जब वो अंजुमने इस्लाम सुब्हानी हॉस्टल में  रहते थे। नाज़ व नाम में पला नवीद हॉस्टल के टूटे फूटे रूम में खटमलों मछरों के दरमियान खुश व खुर्रम रहा करते। उन की इस जद्दो जहद पर ये शेर सादिक़ आतें हैं
मनजिल कि हो तलाश तो दामन जनून का थाम
राहों के रंग देख न तलवों के खार देख
या
दुआ देती हैं रहें आज तक मुझ आबला प् को
मेरी पैरों की गुलकारी बियाबान से चमन तक है
       फिर थोड़ा अर्सा नवीद नें मुंम्बई में जॉब किया। इस के बाद जो रस्सी टुडवा के भागे तो दुबई में क़ियाम लिया। आजकल दुबई की मशह्हूर कंपनी यूनिलीवर में जॉब करते हैं और रहते हैं शारजाह में , में इतने वसूक़ से इस लिए कह सकता हूँ वहां भी में ने उन का पीछा नहीं छोड़ा वहां भी उन से मिल आया हूँ। उनके अब्बा हुज़ूर डॉ वासिफ अहमद तो गुजरात हुकूमत के खूंटें से ऐसे बंधे के रिटायर होकर छुटे। अल्हमदोलीलाः नवीद अंजुम तररकी के जीने पर तेज़ी से रवां दवान हैं अल्लाह उन्ह मज़ीद तररकी दें आमीन सुम्मा आमीन। मेरी दुआ है के नवीद अंजुम बेहद तररकी करे फुले फले बहुत जल्द क्रिकेट की टीम तैयार करें। मेरी आखरी नसीहत बाप  की हर बात पर अमल करें लेकिन "हम दो हमारे दो पर बिलकुल नहीं।
PS:  मोहतरिम खालू जान (रज़ीउद्दीन शैख़) ने भी नवीद अंजुम के के वलीमे पर "घर की मिटटी घर में" टॉपिक  पर एक तक़रीर की थी वह हमारे दरमियान नहीं रहें। इन ८ सालों में हरदिलअजीज सादिक़ अहमद (दादा भाई ),छोटी आपा (शरीफुन्निसा) भी हम से बिछड़ गयी।




शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016

Tipu sultan summer Palace

टीपू सुल्तान समर पैलेस (बैंगलुरू )
मुस्लिम रूलर्स ने हिंदुस्तान पर जिस शान से हुकूमत की ,सदियों साल बाद भी उनके नुकूश मिटने से नहीं मिट पाते।  शेरे मैसूर टीपू सुल्तान के महल श्रीनागापटनम में  अंग्रेजों ने १७९९ में , टीपू को शहीद कर अपनी नफरत का सुबत पेश कर के उन के महलात नेस्त  नाबूद ,तबाह बर्बाद कर दिए थे। उन के महल आज भी श्रीनागापटनम में टूटी फूटी शक्ल में मौजूद हैं। उन की बनायीं  आलिशान मस्जिद ,उन का मज़ार आज हज़ारोँ सैलानियों का मंज़ूरे नज़र बना हुवा है।
   बेंगलुरु में समर पैलेस बनाने की शुरवात टीपू के वालिद हैदर ने ,१७८१ में की थी। १७८२ में उनके वालिद की मौत के बाद टीपू ने इस पैलेस को १७९२ में कम्पलीट किया।  ये  एक मंज़िल इमारत चालीसों लकड़ी के सुतूनों पर खड़ी है। आर्चिओलॉजिकल सर्वे की मालूमात से पता चलता है के इन सुतूनों (सत्मभ ) को इमारत में लगाने से पहले कावेरी नदी में एक साल तक डुबों कर रख्खा गया था। इसी वजह से आज २२४ साल बाद भी यह सत्मभ अपनी ओरिजिनल शक्ल में मौजूद हैं। इमारत का नक़्श (आर्किटेक्ट ) फ्रांस में बनवाया गया था। इस  पैलेस में टीपू अपना दरबार लगा ,जनता के फैसलें किया करते थें। टीपू ने  इस पैलेस का इस्तेमाल बदकिस्मती से सिर्फ ७ साल की छोटे से पीरियड के लिए किया था। बदबख्त अँगरेज़ खुशकिस्मत रहे के १७९९ से १९५७ तक  १५० साल इस पैलेस का इस्तेमाल फौजी छावनी की सूरत में करते रहे।  पैलेस में टीपू की ओरिजिनल पेंट की हुवी तस्वीरें लगी हैं। टीपू के वॉर में इस्तेमाल किये मिसाईल/रॉकेट भी रखें हुवे हैं जिन की रेंज २ किलो मीटर बतायी जाती हैं। डॉ ऐ पी जे अब्दुल कलाम आज़ाद ने भी इस बात की तस्दीक (authenticity) की है के टीपू सुलतान राकेट/मिसाइल को इंवेंट करने वाला पहला आदमी था।
   शायद हम इन् यादगारों उतनी कद्र नहीं करते ,फॉरेन टूरिस्ट हज़ारों मील का सफर कर इन यादगारों को देखने पहुँचते हैं यादगार के लिए तस्वीरें खींचतें हैं। 

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

yaar zinda sohbat baqi

किसी फिलॉसफर का कहना है की "तुम मुझे अपने दोस्तों से मिला दो में तुम्हारे कैरेक्टर को जान लूँगा " में खुश नसीब हूँ के मुझे बेहतरीन दोस्त नसीब हुवे हैं।  और ऐसे दोस्तों की गिनती बढ़ती ही जा रही है।  अब तो कोई भी मेरे कैरेक्टर पर शक नहीं कर सकता सब जानते हैं में आप जैसे प्यारे दोस्तों से घिरा होता हूँ।
     फिल्म इंडस्ट्री में  गिरीश कर्नाड हुवा करते थे और में उनकी एक्टिंग का में दीवाना हुवा करता  था।  कुछ सालों से पारसिक हिल पर में सवेरे वाकिंग के लिए जाया करता था।  सब से हाई हेल्लो हुवा करती। प्रमोद कर्नाड साहब भी रेगुलरली आया  करते थे। उन की मीठी मीठी मुस्कान ने मुझे अपना दीवाना कर लिया। गोल गोल चहरें पर मुस्कराती आँखें ,दरमियानी काठी का कद ,और बात करते तो मुँ से फूल झड़ते महसूस होते। उन्ही से पता चला के वह गिरीश कर्नाड के करीबी रिश्तेदार है। फिर वह वॉकर्स एसोसिएशन नेरुल के प्रेसिडेंड बना दिए गये। मेरी उन से गहरी दोस्ती होगयी। वह हीरे की कदर करना जानतें हैं। महाराष्ट्र कॉ ऑपरेटिव बैंक स्टॉफ के सिलेक्शन  में ज़रूर उन का योगदान रहा होंगे। मुझे उनोह नें ही लिखने के लिए बहुत encourage किया।
     प्रमोद साहब की एक शख्सियत में कई कैरेक्टर छुपे हैं।  और वो हर कैरेक्टर में हकीकत का रंग भर देते हैं। में उन्हें बहरूपिया नहीं कह सकता। प्याज़ के छिल्कों की तरह एक परत उतारिये वह शायर (कवि ) की भूमिका धार लेते हैं।  दूसरी परत उतारिये बेहतरीन ड्रामा लिखने वाले ,तीसरी परत उतारिये वह उम्दा गायक या पंडित का रूप धार लेते हैं। चौथी परत उतारिये कामयाब  महारष्ट्र कॉ  बैंक के MD, जो बैंक की डूबति नैया को अपनीं कोशिशों से किनारे पहुँचाने की कोशिशों में लगे रहतें हैं और बैंक को ४५० करोड रूपये का प्रॉफिट दिखा कर दो बार इंडिया के बेस्ट MD होने का मैडल भी जीत है । बेहतरीन anchor ,अपनी बीवी से प्यार करने वाले  पति ,बच्चों ,पोते  पर प्यार निछावर करने वाले । में तो उनकी शख्सियत की परतें खोलतें खोलतें हैराँ हूँ। कभी आखिर परत तक पहुँच पौऊंग या नहीं। लेकिन में जानता हूँ की उन के अंदर एक मासूम सा छोटा  बच्चा भी छुपा बैठा है जो सब को खुश रख कर ,किसी को उदास नहीं देख सकता। यही  उनकीं अदा ,मुझे बहुत पसंद है।
  Legends Are Born in SEPTEMBER
लाता मंगेशकर,देव आनंद ,मनमोन सिंग ,भगत सिंह  जैसी  महान personalities ने इसी महीने में जनम लिया था। मंसूर जथाम ने भी इसी महीने में जनम लिया था। वह रोज़ सुबह walk पर आतें हैं सब से  मिलते हैं और अपनी मुस्कराहटें बाँट कर वंडर पार्क को गुलो गुलज़ार कर देते है। और हर दिन whatsup पर ख़ूबसूरत messages भेज कर दिल खुश कर देते हैं। कुछ दिन पहले wonder park में पहली बार उन का जनम दिन बड़ी धूम धाम से मनाया गया था। Mrs. कमल मल्होत्रा का जनम दिन भी इसी महीने में था उन्हें भी जनम दिन मुबारक ढेरों नेक ख़्वाहिशात।
प्रमोद कर्नाड साहब का आज जनम दिन है , उम्र के किस साल में वह enter हो रहे हैं मैं कह नहीं सकता  वह हमेशा जवान दिखयी देतें हैं। सालगिरह मुबारक़।
      तुम जियों हज़ारों बरस
  सर इसी तरह हमेशा हँसतें मुस्कुरातें रहें। ग़म बांटने से कम होतें हैं और खुशियां बांटने से बढ़ती हैं। ख़ुशी लुटातें रहें। 

सोमवार, 19 सितंबर 2016

VRSCCL kal aur Aaj

२० साल पहले जब में ने अपनी ऑफिस इ-२०९ वाशी स्टेशन का possession लिया था लोग मुझे दीवाना कहते थे। वाशी स्टेशन की ईमारत खंडर सी नज़र आती थी। ईमारत पर वीरानी छायी रहती। काम्प्लेक्स का मेंटेनन्स  सिड़को के पास था।  भूल से सफाई होजाती थी। जगह जगह सिगरेट  के  टुकड़े ,शराब की खाली बोतलें ,कंडोम के पैकेट ,पान की पीक नज़र आती। सिक्योरिटी ग़ायब।  टॉयलेट गन्दी ,यहाँ तक वहां से शीशे और नल तक चुरा लिए जाते थे। किरायेदर का मिलना नामुमकिन। उन दिनों में अपनी ओफ़ीस किराये पर देना चाहता था मुश्किल से एक आदमी २००० हज़ार रुपए महीना देने पर राज़ी हुवा। बिल्ली जब छछुंदर निगल लेती है न निगल सकती है न उगल सकती है। कई साल ऑफिस खाली रखी,  मैंटेनैंस पावर बिल जेब से अदा करता रहा।
   पिछले तीन सालों में वाशी स्टेशन काम्प्लेक्स की काया पलट गयी है। VRSCCL की कमांड मेरे प्रिय मित्र राजेंद्र पवार ,कर्नल अनवर उमर सर  ,मनोज शाह,राज ठाकुर , ऍम आर सिद्दीकी अपने हाथों में ले ली है। पुरानी हिंदी फ़िल्में देखि थी किस तरह अलाउद्दीन का जादुई जिन चिराग़ घसते ही हुक्म की तामील करता था।  वो ज़माने बीत गए चर हमारे VRSCCL के  chairmam / Directors  ने दिन रात महनत की ,रातोँ की नींद हराम की ,लोगों की गालियां खायी। anauthorised occupation हटाना नामुमकिन है उनोह ने कर दिखाया। maitenance dues निकलना हलक़ में ऊँगली डालने जैसा है ,आप मुबारकबाद के क़ाबिल है आप ने कर दिखाया।
में अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवाँ बनता गया
    Aaj vashi station complex की ईमारत पर लहलहाते गार्डन है।,चमकती फर्श ,टॉप सिक्योरिटी ,video cameres , wi fi facility ,और future के लिए solar power ,rain water harwesting ,fountains की दूरसरती। हम सब की तरफ से best wishes . शहंशाह अकबर फ़तह पुर सिकरी को छोड़ कर चला गया था। chairman /Directors मुबारकबाद के काबिल है आप लोगों ने वाशी स्टेशन काम्प्लेक्स में नयी जान दाल दी। VRSCCL के ख़ज़ाने भर दिए। आप  की टीम आगे बढे हम सब आप के साथ हैं। 

गुरुवार, 15 सितंबर 2016

Khak men kya suraten hogi ki pinha hogayi (Dulhan Mumani shakila )

शोर बरपा है ख़ानए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
28 ऑगस्ट  २०१६ ,२४ ज़िलक़द  १४३७  इतवार के दिन दुल्हन मुमानी इस दारे फानी से कूच कर गयी।
मनो मिटटी के निचे दब  गया वह
हमारे दिल से लेकिन कब गया वह
    छोटा कद ,दूध की तरह  सफ़ेद रंग ,गोल चेहरा ,चेहरे पर सब से ज़ियादा नुमाया उनकी खूबसूरत आँखें थीं ,छुइ मुई सी ,रहन सहन में उनके एक रख रखाव था ,उनकी एक नयी खूबी मोहतरमा भाभी नीलोफर से सुनी ,क़ुरान बड़ी तेज़ी से ख़त्म कर लिया करती थी।  सुना था दूल्हे मॉमू ने बहुत काम उम्र में उनसे निकाह किया था। पचास साल से ज़ियादा ,दोनों ने साथ बिताया ,दूल्हे मॉमू के दिल  का दर्द में महसूस कर सकता हूँ।
जाने वाले कभी नहीं आते
जाने वालों की याद आती है
    आँखों से ५४ साल पुरानी मोटी सी धुंध की चादर हट रही है। अपने आप को परियों के महल में बैठा महसूस कर रहा हूँ। करीब से गुज़रती ट्रैन की सीटी को सुन सकता हूँ। सफ़ीद बुर्राक़ लिबास में बैठी नानी अम्मा पान कुटती नज़र आ रही है।दूल्हे मामूं दूकान में गिराहकों से निपट रहे हैं। दजिया ,रेवा ,जमादार जिन्नों की तरह हुक्म की तामील में लगे हैं। मुमानी अम्मा ,दुल्हन मुमानी ,गोरी मुमानी किचेन में खाना बनानेँ में मसरूफ हैं। में ९ साल का छोटा राग़िब दौड़ते हुवे किचन कि झुकीं छत से टकरा कर चिल्लाने लगता हूँ।  तीनों मुमनियां बेकल हो उठती है। कोई मरहम लेने दौड़ पङती है ,कोई सर को मालिश कर मुझे आराम देने कोशिश कर रही  है। में नींद से जाग पड़ता हूँ।
कभी किसी ने कहीं रंग व बू को पकड़ा है
शफ़क़ को क़ैद में रख्खा हवा को बंद किया
     सगीर जनाब और मेरी परवरिश में दुल्हन मुमानी का बड़ा मक़ाम रहा है। माशाअल्लाह अज़हर/अतहर /रईस /सबीना/
रुबीना/राफेआ ,बहुवें ,नवासे , नवासियां ,पोते,पोतियां खानदान की गिनती ४० तक ,लेकिन दूल्हे  मॉमू,दुल्हन मुमानी ने
वोह तालीम दी है के ,मैं ने सख्त मुश्किल दौर में भी उन लोगों को ईमानदारी ,दयानत मे उसूलों से समझौता करते नहीं देखा। अल्हम्दोलिलाह अल्लाह ने फिर उनेह नवाज़ा है। दुल्हन मुमानी ने आखरी वक़्त में औलाद को खुश हाली में देख
कर अपनी आँखें ठंडी कर ली. उनकी तमाम औलाद और बहुओं ,पोतों ,पोतियों , नवासे , नवासियों ने किस हद बेलौस खिदमत
कर उनका कुछ क़र्ज़ अदा कर दिया। अल्लाह सब को जज़ाए खैर दें। दुल्हन मुमानी को कर्वट कर्वट जन्नत नसीब करें। आमीन सुम्मा आमीन !

गुरुवार, 23 जून 2016

iftaar programme sponsored by Markaz e Falah

फूलों को बहार मुबारक हो ,किसानों को खलयान मुबारक हो
परिंदों को उड़ान मुबारक हो ,चाँद को सितारें मुबारक हो
आप सब को रमज़ान मुबारक हो
गये १७ सालों से मरकज़ इ फलाह नेरुल और नवी मुंबई पुलिस के ताल मेल से इफ्तार का  कामयाब प्रोग्राम आयोजित होता रहा है। इस बार भी आप लोगों ने इफ्तार प्रोग्राम में शामिल होकर ,प्रोग्रम की रौनक बढ़ायी आप सब  का बहुत शुक्रिया। इस प्रोग्रम की खासियत रही है के, सभी जात धर्म के लोग बड़े उत्साह से इस में शामिल होतें हैं। और प्रोगाम को काफी सराहा (appreciate ) भी जाता है। हमारा मक़सद है मोहब्बत ,भाई चारगी (brotherhood ) का पैगाम सब तक पहुंचे। आज भी आप लोगों ने नोट किया ही  होंगा की हमारा स्टेज चाँद सितारों की तरह सजा हुवा है। गंगा जमनी संस्कृति का नमूना बना  हुवा है। पंडित भी है ,pastor भी है ,गुरुदवारे के प्रबंधक भी है ,जमा मस्जिद नेरुल के presidentभी  है। मानो एक फूलों से सजा गुलदस्ता हो ,मोहब्बत की लड़ी में पुराई माला  हो ,जिस से हॉल महक गया है।
 मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन है हिंदुस्तान हमारा।
 रमज़ान इस्लामी  हिजरी कैलेंडर का ९ वां महीना होता है जिसमें  मुस्लिम बन्धुओं को महीना भर रोज़े रखना होतें हैं। रोज़ा इस्लाम के ५ पिल्लर्स में से एक पिलर है। रोज़ा आँख का भी होता है के ग़लत बात न देखे ,कान का भी होता है के ग़लत बात न सुने ,हातों पैरों का भी होता है के ग़लत काम न करें। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ला लाहों सल्लम) ने कहा के अगर एक बात भी छूटे  तो रोज़े का सवाब (reward ) नहीं मिलेगां। रोज़े के कई दूसरे फायदे भी है ,रोज़ा ग़रीबों के दुःख दर्द  भूक का एहसास सीखता है  , रोज़े से self control आता है के किसी चीज़ का ग़ुलाम नहीं होसकते जैसे ग़ुस्सा ,ड्रग्स ,तम्बाकू शराब वगैरे वगैरे। modern studies से पता चला है की रोज़े के ज़रिये blood pressure ,obesity ,diabetics कंट्रोल भी किया जा सकता है। रमजान में दूसरा अमल ज़कात की तक्सीम ,२.५ % ज़कात मालदारों को   माल से निकाल कर ग़रीबों में  बांटनी होती हैं ताकि कोई ग़रीब ईद की खुशयों से बचा न रह सके।
 लेकिन मुस्लिम भाइयों से अपील है ,दरखास्त है के रोज़े,ज़कात ,रमजान,नमाज़ का हमें उसी वक़्त फायदा मिलेगा जब हम पूरे महीने नहीं बल्कि तमाम ज़िन्दगी इन उसूलों पर अमल करें। रमज़ान को आदत बन ले।
 
ज़िन्दगी को रमजान बना लो
तो मौत ईद जैसी होंगी
आप सब को ईद की advance मुबारकबाद
ज़िन्दगी का हर पल खुशयों से काम न हो
आप का हर दिन ईद के दिन से काम न हो

बुधवार, 18 मई 2016

Aur carvan banta gaya


                                                                    और कारवाँ  बनता गया
               पत्थर सुलग रहे थे कोई नक़्श पा न था
                हम जिस तरफ चले थे कोई रास्ता न था
१९९८/९९ की बात है नेरुल शहर तामीर के दौर से गुज़र रहा था। जगे जगे बुलंद इमारतों की तामीर का सिलसिला जारी था। मलेरिआ की बीमारी आम थी। नेरुल तक लोकल ट्रैन की आमद व रफ़्त भीं न थी। जमे मस्जिद अभी संग बुनियाद के मरहले में थी। इसी अस्ना में हम ख्याल लोगों का एक ग्रुप तैयार होता है। अली अम शम्सी की कयादत में बिस्मिल्लाह सर ,मरहूम सादिक़ अहमद ,मरहूम मोहियुद्दीन पाटणकर ,फ़ारूक़ उजजमान, सय्यद मुहम्मद अब्बास ,डॉ अबु जर  ,फ़िरोज़ चौगले के तउवूंन से "मरक ज़े फलह "के नाम से अदारे की बुनियाद डाली जाती है। ट्रस्ट रजिस्टर किया जाता है। खुले मैदान मैं एदैन की नमाज़ों का सिलसिला शुरू होता है। इज्तेमाई क़ुर्बानी ,ग़रीबों में गोश्त की तक़सीम,रमजान के मौके पर ग्रोसरी के पैकेट और ईद उल अज़हा पर ड्राई फ्रूट ,दूध ,गोश्त ,सिवैयां की identified families में तक़सीम का सिलसिला जारी होता। identifed families की फहरिस्त भी एक टीम जिस में मरहूम सादिक़ अहमद शेख ,फ़िरोज़ चौगले,सय्यद मुहम्मद अब्बास , फ़ारू ऊजजमं शामिल थे , बड़ी जाँ फिशानी  व अर्क़ रेज़ि से तैयार की गयी थी। टीम ने बजाते खुद नेरुल के हर ग़रीब मुसलमान उनके मकान ,झोपड़े में पहुँच कर ,दरवाज़ा खट खटा कर सर्वे किया था। फैमिली इन्कम ,घर के मेंम्बरों की तादाद ,स्कूल में पढ़ने वाले उन ख़ानदानों के बच्चों की फ़हरिस्त बनायीं गयी। उस ज़माने में लोगों ने तंज़ के तीर भी चलाएं थे के आगे आगे देखिए कुछ होता भी है या नहीं। अली ऎम शम्सी और उन की टीम के लोग ,सदर के ५० साला तजुर्बे की रौशनी में बच्चों की तालीम के उन्वान पर क्लास अव्वल से पोस्ट ग्रेजुएशन तक के स्टूडेंट्स कि फीस भरने का बेडा मरकज़ इ फलह नेरुल के ज़रिये उठाते हैं। सपना था ,के नेरुल शहर का कोईं बच्चा ग़रीबी की वजह से जाहिल न रह जाए ,अपनी स्टडी पूरी करने से महरूम न रह जाये।
Dream is not what you see while sleeping ;it is something that does not let you sleep before  fufilling it
   मंज़र बदलता है २०१६ में मरकज़ इ फलह को १८ साल पुरे होजाते हैं ,फिर से सर्वे किया जाता है।  identified
  families के बच्चें , जो lower middle class familes से belong करते थे , मेंहनत मज़दूरी कर अपने बच्चो की तालीम का खर्च उठा नहीं पा रहे थे ,मरकज़ इ फलह नेरुल ने उके सपनों को सच करने में एक पुल का काम किया। वही बच्चें आज Graduate ,Post Graduate ,Engineer ,MBA की ड़िग्री हासिल कर मरकज़ का नाम रौशन कर रहे हैं। सोने पे सुहागा ,उन्ही मदद लेने वालों खानदानों से ज़कात की भरी रकम भी मरकज़ को मिल रही है। हर साल मर्कज़ फलह नेरुल की मदद से ७ से ९ बच्चें graduate ,Post Graduate हो रहे हैं।
न जाने मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
में ज़माने में चंद ख़्वाब छोड़ आया था
   सादिक़ शेख ,इसहाक़ हवलदार ,पाटणकर दुनिया में नहीं रहें अपने सपनों को हकीकत में बदलते नहीं देख सके , मगर अपनी खिदमात से आखिरत कमा गयें। मर्कज़ फलह के प्रेजिडेंट ८० साल उम्र के बावजुद उसी जज़्बे से काम में जुटे हैं।
मर्कज़ फलह के नए मेंबर्स यूसुफ़ निशांदर ,रफ़ी शेख ,डॉ शरीफ ,ज़फर शम्सी ,उस्मानी ,राग़िब शेख ,मंसूर जथाम नए जोश नये वलवले से मर्कज़ फलह से जुड़े हैं। इन सब का भी यही सपना है की क़ौम का हर गरीब बचा UPSC ,MPSC ,IIT का EXAM पास करें ,डॉक्टर बने ,इंजीनियर बने ,जज व वकील बने। ख्वाब देख कर इस को अमल में ढालने के लिए ये कोशिश क़बीले तारीफ़ है। क्यूँकि
All find shelter during rain ,but eagle avoid rain by flying above cloud



शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

Dil to bacha hai ji

                                                    ایک شخص سارے شہر کو ویران کر گیا                                                                                           
                                                        26 July 2022
                  
آج صبح فجر بعد مقیم وارثی صاھب کی نمازے جنازہ نیرول جامع مسجد میں  ادا کی گی اور تدفین نیرول کے سیکٹر چار کے قبرستان میں عمل میں آیی -مرحوم ٩٠ سال کی عمر کو پہنچ گئے تھے -ایک مہینے قبل تک  بھی کلپنا چاولہ گاردن میں دھیرے دھیرے چہل قدمی کرتے تھے میں ملاقات کر لیتا تھا -پرسوں  ٢٥ جولائی دوپہر نصرت سے اکسا مسالہ کی دکان پی ملاقت ہویی کہنے لگی ابّا سے مل لی جئے حالت نازک ہے -میں شام عصر بعد انکے گھر پہنچا تمام بیٹیاں انہے گھیری  بیٹھی تھی کویی زم زم پلا رہی تھی کویی آکسیجن بلڈ پریشر چیک کر رہی تھی (آکسیجن تو  میٹر دکھا ہی نہیں رہا تھا ) کویی انکے سینے کی مالش کر رہی تھی -انکی اہلیہ بھی پریشان بیٹھی تھی- تھوڑی تھوڑی بعد سب پونچھ  رہے تھے ابّا اب کیسا لگ رہا ہے -اوہ مشکل سے سانس لے پا رہے تھے شاید آخری وقت قریب آگیا تھا -مجھے پہچانا ہاتھ ملایا اور کہا "آپ کو خبر نہیں ملی بہت دیر کردی اپنے آنے میں -تمام بچیوں کی باپ سے محبت دیکھ کر آنکھ سے آنسو نکل پڑے اس زمانے میں بھی ایسے خاندان ہیں جہاں والدین کی اتنی قدر کی جاتی ہے  حقیقت یہ ہے کے  والدین کی تعلیم کا  اثر  ہی بچوں میں  دکھایی دیتا ہے -سات بچکر پانچ  پر میں اور قاسم بھائی جو وہاں موجود تھے مغرب نماز کے لئے نکل پڑے ٹتھوڈی دیر  بعد ان کی روح قبض ہوگیی مجھے یقین ہے فرشتے ان ہی کے لفظوں میں "ایے حضور بیٹھے تخت پر کھائے کھجور " کہہ کر انکا استقبال کر رہے ہونگے  -الله جنّت فردوس میں مرحوم کو جگہ عطا  فرماے -آمین 
                                                           1 april 2016
                                                            دل تو بچہ ہے جی  

                                     
بات 85 سالہ بزرگ کی ہو رہی ہے-جس کی زات میں اب بھی ایک چھوٹا بچہ دکھایئ دیتا ہے-کبھی کبھی وہ بزرگوں والی حرکتیں کرتے ہیں-اس عمر میں بھی وہ  اپنے گھر سے مسجد،پوسٹ آفس حتی کے نیرول ویسٹ تک پیدل گھومتے دکھایئ پڑتے ہیں-اکژ اوقات یہ ہوتا ہے میں کار یا اسکوٹر سے جا رہا ہوں دکھایئ دیے پوچھا مقیم صاحب کہاں کی تیاری ہے کہنے لگے بھاڑا وصول کرنے سیکٹر 48 جا رہا ہوں پوچھا چھوڑ دو –فرمانے لگے میں چلا جاونگا ،ہاں نہیں کرتے کار میں بیٹھ جاتے ہیں-اس مقام تک پہنچتے پہنچتے 15 منٹ لگ جاتے ہیں-میں سوچ کر پریشان ہوجاتا ہوں پیدل وہ کب،کسطرح پہنچ پاتے-اس عمر میں اسکوٹر پر بیٹھ کر بھی جوانوں کی طرح لطف لیتے ہیں-اتنی عمر ہونے کے باوجود ہم سب سے دوستانہ تعلقات نبھاتے ہیں-ایک دن واکنگ کرتے کرتے پارسک ہل پر ملاقات ہو گیئ،میں دھیرے دھیرے واک کر رہا تھا  میرا ہاتھ پکڑ کر کھینچ کر اوپر تک پہنچا دیا-ان کی ہاتھ کی پکڑ بہت مظبوط ہوتی ہے لوہے کی طرح سخت ہاتھ ہیں-لیکن بات چیت لہجہ نرم شگفتہ دلنواز ہے-کھڑےکھڑے فجر کے بعد 15 شعروں کی مشکل نظم بغیر رکے سنا کر ہم سب کو مہبوت کر دیتے ہیں-گھر میں ان کا بہت رعب ہے-ان کی اہلیہ بھی بامحاورہ زبان بولنے کی عادی ہے-ان دونوں کی 64 سالہ رفاقت کے باوجود رشتوں میں زرا بھی ماندگی نہیں آیئ
جس دن سے چلا ہوں میری منزل پہ نظر
آنکھوں نے کبھی میل کا پتھر نہیں دیکھا
غالبن 15 سال کی عمر میں انہوں نے اپنی پرکٹکل زندگی کا آغاز کیا تھا-یوپی سے کلکتہ کے لیے نکل پڑے تھے-7 سال کلکتہ میں قیام کیا-انسان ہر بات کا اندازا پنی زات سے مقابلہ کرکے کرتا ہے –میں نے ایک دن ان سے پوچھا مقیم صاحب آپ کی شادی کب ہویئ تھی –کہنے لگے 1952 میں نے کہا میری پیدایش سے 2 سال پہلے—سمجھدار ہے کہنے لگے تم 1954 میں پیدا ہویے تھے کیا؟ پھر وہ بنجاروں کی طرح بھٹکتے رہے-کلکتہ سے دوگنا وقت یعنی 15 سال ممبیئ میں کام کیا-اور پھر کلکتہ سے تین گنا کام سعودی میں کیا 23 سال-وہ تو اچھا ہوا غیر مقامی لوگوں کو سعودی کی شہریت نہیں ملتی ورنہ سعودی میں مقیم ہونے کا انہوں نے تہیہ کر لیا تھا-پھر ہم سے ان کی ملاقات کہاں ہوتی؟ غالبن 1992 سے وہ شفق منزل نیرول میں قیام پزیر ہے-یہ کہنا صحیح ہوگا کے مقیم ہے-میں نے کہی ایک ریسرچ پڑھی  تھي کے جتنا بھی جس چیز کا استعمال کیا جایےوہ فٹ رہتی ہے-مقیم صاحب کی صحت کا راز ان کا لگاتار چلنا ہے-دماغ اس لیے چکاچوند ہے کے اب بھی نیئ پراپرٹي کی خریداریکی خریدوفروخت وہی کرتے ہیں-کمرے،دکانوں کرایا وصول کرنا،خالی کروانا،نیے کرایاداروں کو رکھنا،پراپرٹی ٹیکس بھرنا انہیں کے زمہ ہے-یہاں تک کے گاوں کی مسجد بھی ان کی محنتوں کا نتیجہ ہے-ممبیئ سے گاوں پہچنے کے لیے 35/36 کا طویل سفر ہے لیکن یہ وقفہ وقفہ سے کبھی ٹرین سے کبھی فلایٹ سے اتنی عمر میں بھی چکر کاٹتے رہتے ہیں-کیونکی گاوں کے ہر فنکشن میں ان کی موجودگی ضروی ہے-
نہ جانے میرے بعد ان پہ کیا گزری
میں زمانے میں   چند خواب چھوڑ آیا تھا
مقیم صاحب نے کھلی آنکھوں سے خواب دیکھے ہیں اور انہیں پورا ہوتے ہویے دیکھا ہے-آج 85 سال کی طویل عمر پا  کر انہوں نے ماشااللہ اپنے پڑپوتے ،پڑ نواسے تک دیکھ لیےہیں-انہوں نے مجھے بتایا کے تمام بیٹے،بیٹیاں،پوتے نواسے وغیرہ کی تعداد ملا کر 43 کا عددبنتا ہے-آج بھی خاندان میں ان کی مرضی کے بغیر کویئ کام نہیں ہوتا-لوگوں کی دعوتیں کرنے کا انہیں شوق ہے-سماجی اور مزہبی کاموں میں وہ بڑھ چڑھ کر حصہ لیتے ہیں-ان کا گھر ہمیشہ مہمانوں سے بھرا ہوتا ہے-صبح کی نماز کو جب میں گھر سے نکلتا ہوں وگھنار کے گیٹ پر مجھے دور سے دیکھ کر پہچان لیتے ہیں-یہ ان کی نظر کی تیزی ہے یا بقول شاعر ان کا پیار
بہت پہلے سے ان قدموں کی آہٹ جان لیتے ہیں
تجھے اے زندگی ہم دور سے پہچان لیتے ہیں
اللہ سے دعاگو ہوں وہ اس طرح صحت مند رہے-ویسے بھی بااخلاق لوگ لونگ الایچی کی طرح عنقا ہوتے جا رہے ہیں-وہ اپنے اخلاق محبت سے ہم سب کو نوازتے رہے-ان کی دعوتوں ،تحفہ میں دیے ہویے خوشبوں اور ہاتھ سے بنی نقاشی کی ہویئ چیزوں کا سلسلہ ایسے ہی جاری رہے- (مجھے ہاتھ بنی رحل تحفہ دیا تھا) اور ان کا ایک جملہ "آییے حضور کھایے کھجور بیٹھے تخت پر کانوں میں گونجتا رہے-

गुरुवार, 14 जनवरी 2016

phir teri kahani yaad aayi

सुनी हिकायतें हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
     हमारे खानदान में ननिहाल में बड़ो को इज़्ज़त से बुलाने के लिए अजीब से खितबात से नवाज़ा  जाता ,दूल्हे दादा मुझ से उम्र ४  साल बड़े हैं ज़िन्दगी में सिफ एक बार दूल्हा बने लेकिंन हमारी नज़रों में उनकी उरफ़ियत वही रही ,हालांकि बाद में उन्हों ने सेवाग्राम से डॉक्ट्रेट की डिग्री हासिल कर ली और डॉ वासिफ अहमद कहलाये ,उन के बचपन के वाक़ेआत सिर्फ अब्बा ,आपा  से सुने हैं। सुना है उस ज़माने के फाइनल इम्तेहान ,जो सातवीं जमात के बाद होते थे ,जनाब ने शुहरत के झंडे गाड़ दिए थे। एक दिन उन के प्राइमरी स्कूल के ज़माने के उस्ताद शफी जनाब से बस के सफर के दौरान ,इत्तेफ़ाकन मुलाक़ात हो गयी कहने लगे " जिस तरह पूत के पांव पालने में नज़र आजाते हैं तुम्हारे भाई साहेब डॉ वासिफ अहमद बहुत ज़हीन हुवा करते थे उसी वक़्त में ने अंदाज़ा लग लिया था के ये ज़िन्दगी में कुछ न कुछ कर दिखायेंगें "
    बचपन में कद छोटा था तुनक मिज़ाजी और नफासत मिज़ाज में कूट कूट कर भरी थी।
उन से ज़रूर मिलना सलीके के लोग हैं
सर भी क़लम करे करेंगे बड़े एहतेमाम से
     स्कूल के ज़माने में text  की किताबें साल भर इस्तेमाल करने के बाद पौन कीमत में बेच दिया करते थे। खाने में भी नफासत थी अक्सर छोटी आपा  उनके लिए एक पियाली में सालन और दो सुथरी बोटियाँ निकल कर अलग से रख दिया करती। उस ज़माने में ज़ाहिद, राशिद ,जावेद और में बदनसीब उनकी रिआयत हुवा करते और वह किसी बेताज बादशाह की तरह हम पर हुकूमत करते। उन के घर पहुँचते ही हम लोग कोनो खदरों में घुस जातें। मानो कर्फू लग गया हो। वरना बात बात पर हम सब की पिटाई होती और हम बेबस उनेह नालायक़ बद्तमीज़ कह अपनी भड़ास निकल लिया करते। सब से ज़ियादा में उन की ज़ियादतियों का शिकार होता कुयकिं में उनका पीट शरीक भाई था। जनाब तो शान से सलून में हेयर कटवा  कर आतें और हम सब को ज़बरदस्ति चार आने में सुकलाल मामा ,जो हजामत की पेटी लिए घर घर घूमता था , से बेढब से बाल कटवाने पडतें। अगर वह भी कभी महगांई का रोना रो कर  ५ पैसे ज़ियादा मांगता तो उसे भी डांट  पड़ती "बाल काटने आतें नहीं और करते हो पैसे बढ़ाने की फालतू बात ,अगली बार से आने की ज़रुरत नहीं" और उस के रोंगटें खड़े होजाते दाम बढ़ने से तौबा कर लेता। हमारी धोबन भी उनके सामने आने से कतराती थी,क मुझे याद  है ५ पैसे कपडे पर बढ़ाने के लिए उसे नाकों चने चबाना पढ़ते । आज सोचता हूँ तो अहसास होता है उन की इस हिकमत अमली से  अब्बा को किस  क़द्र  सहारा मिलता होगा, जो ५५ रूपयें महीने की पेन्शन में घर की गाडी को खीचने की नातमाम कोशिश करते थे।
ज़िन्दगी नाम हैं यादों का तल्ख़ और शीरीं
    बचपन की  कुछ यादें ज़हन पर लायानी नुक़ूश छोड़ जातीं हैं भुलाये नहीं बोलतीं। देव आनंद की असली नक़ली फिल्म रिलीज़ हुवी थी बहुत हिट हुवी थी। मुझे स्कूल से हरे महीने १० रूपये स्कालरशिप मिला करती थी उस में से अब्बा की तरफ से  महीने में एक फिलम  देखने के लिए ६० पैसे मिला करते थे। जलगाव में चित्रा सिनेमा में यह फिल्म लगी थी। लम्बी क़तार छोटी सी टिकट खिड़की हुवा करती ,लोग एक दूसरे के सरों पर चलतें हुवे खिड़की तक पहुंचतें ,टिकट निकलना भी मानो एक आर्ट था। में ने एक अजनबी शख्स को टिकेट निकलने के लिए पैसे दिए  जो टिकेट खिड़की के पास था ,वह भीड़ में ऐसा ग़ायब हुवा जैसे गधे   के सर से सींग। जाने भाई साहब को कैसे पता चल गया। में ३ घंटे आवारा गर्दी करके घर पहुंचा शायद किसे पता न चले । घर लौटने पर बही साहेब प्यार से पूछने लगे फिल्म दख आये ? में ने झूट मूट कह दिया होटल चला गया था फिल्म देखने का मूड न था। "पुछा क्या क्या खा आये " में ने कहा "लड्डू पेड़े " पूछने लगे और क्या क्या ?में गड बड़ा गया ,फिर तो खूब लाल पीले हुए।  फिर वह  पिटाई हुई क्या बताऊ तौबा। लेकिन जिंदगी   भर के  लिए सबक मिला ,और फिर कभी किसी से झूट बोलने की जुर्रत न हुयी।
   बचपन एक हादसा , भाई साहेब स्कूल से लौटते हुवे नटवर थिएटर के क़रीब एक बिजली के खम्बे से टकरा कर बेहोश होकर गिर पड़े थे। दोस्तों ने उनेह घर पुह्चाया था। कई घंटों के बाद उनेह होश आया था ,अब्बा और हम सब बहुत परेशान हुवे थे।लेकिन जैसे फिल्मों में होता है, हीरो की याददाश्त किसि हादसे के बाद लोट आती है , उस हादसे के बाद ,डॉ साहेब की ज़हानत में ज़रूर तर्रकी हुवी थी वल्ला आलम बिसव्वाब।
   उस ज़माने में क्रिकेट का उनेह जूनून था। उन का फ्रेंड सर्कल भी रंगा रंग हुवा करता था। रहीम, अनीस ,रउफ और मुनाफ जो नक्काली में इन्तेहाई माहिर था। रशीद वकील उस ज़माने जलगाओं के मशहूर वकील हुवा करते थे, मगर हिकलाया करते थे। मुनाफ हूबहू नक़्क़ाली किया करता किस तरह जज से आर्गुमेंट करते होंगे अपनी तरफ से मिर्च मसाला लगा कर तमाम दोस्तों के सामने नक़ल निकलता ,दोस्तों में वकील साहब का बेटा  रउफ भी हुवा करता बेचारा जुज़ बुश हो कर रह जाता। हमारे मोहल्ले कटिया फ़ैल में हमारे पड़ोस में मियां खान रहते थे ,जलगाव सिविल कोर्ट में चपरासी हुवा करते थे। उनेह म्यूं से चिड़ होगयी थी ,अक्सर डॉ वासिफ और उनके दोस्तों के मज़ाक का निशाना बना करते। एक दिन मुझे कहने लगे "अपने भाई और उन के दोस्तों समझा देना एक दिन सब को  जज साहेब के सामने खड़ा कर दूंगा मेरी उन से बड़ी अछि  जान पहचान है "
  १९६५ में भारत पाक जंग होरही थी मोहल्ले में सिर्फ गुलबास खान मिस्त्री के पास रेडियो हुवा करता था, बड़े ज़ोरो शोर से रेडियो पाकिस्तान से ख़बरें नशर हो रही थी। यही मियां खान बीच सड़क पर खटिया डाले ख़बरों से लुत्फ़ अन्दोज़ हो रहे थे के ,डॉ साहेब के कुछ दोस्त आ धमके और हसीं मज़ाक हल्ला गुल्ला करने लगे। मियां खान को खलल हुवा ,आग बगुला होगये। लेकिन मामला इस तरह रफा दफा हुवा के भाई साहेब और उन के दोस्तों ने उनेह इस बात का अहसास दिलाया के ,रेडियो पाकिस्तान से ,जंग के दरमियान खबरें सुन्ना जुर्म था। उनेह इस बात का भी अहसास होगया के शायद उनेह अपनी ही कोर्ट में मुजरिम की तरह खड़ा होना पड़े।
    फिर उनोह ने अपनी ज़हानत का  एक और सबूत दिया एसएससी में distinction में कामयाबी। जिस साल उनोह ने एसएससी पास कर एंग्लो उर्दू हाई स्कूल जल्गाओं को अलविदा कहा में ने आठवी क्लास में एंग्लो में दाखला लिया। प्रिंसिपल सय्यद सर की  केबिन में टॉप करने वाले बच्चों की , बोर्ड पर लिस्ट लटकी हुवी थी ,और अब भी है ,डॉ वासिफ का नाम भी उस में शामल था। एंग्लो में हमें डॉ वासिफ के छोटे भाई के नाम से शोह्तात हासिल हो गयी। उन के नाम से कहीं फायदा पोहंचता तो कहीं नुकसान। अछे नंबर मिलते तो कहा जाता ज़हानत वर्से में मिली है। शरारत करते तो हमें शर्म दिलाई जाती वासिफ के छोटे भाई होकर ऐसा काम करते हो शर्म नहीं आती। एक बार एम . ऐन . सय्यद सर क्लास में दाखिल होरहे थे किसी ने मुझ से पूछा किस सर का लेक्चर है में ने सर को नहीं देखा था, बेख्याली में बोल  गया ,एम. एन. का, बंडू का ,जो उन की उरफ़ियत थी , मुझ पर बहुत घुस्सा हुवे कहने लगे "ऐसी बात कहते शर्म नहीं आती ,नाज़ था जिन पे वही पत्ते हवा देने लगे ,कहाँ  वासिफ अहमद कहाँ तुम "
   अब्बा की मामूली पेनशन ,घर में तंगदस्ती थी। जलगाओं का छोटा सा घर अब्बा,छोटी आपा ,दूल्हे भाई, जावेद ,में और आपा  के तीन छोटे बचें। घर में धमाँ चोकड़ी हुवा करती। रात में मिटटी के तेल  की लालटेन जला  करती। भाई साहेब की पढ़ाई का तरीका भी अजीब हुवा करता। सर्दी में फिर भी ग़नीमत था, गर्मी के मारे  लोगों का बुरा हाल होता वह भी जल्गाओं की गर्मी उफ़ !लेकिन जनाब लोहे के पलंग को इर्द गिर्द से चादर से ढांप कंदील और किताबें लेकर घुस जाया करते ,पढ़ाई में मसरूफ होजतें ,फिर न उनेह बच्चों की चीख पुकार सुनायी देती न मोहल्ले के सरकारी नल पर औरतों की घमसान लड़ाई। आज सोचता हूँ तो लगता है इस हब्स में इंसान का दम घुट जाये। इंिनिह हालत में इंटर साइंस का EXAM  M.J.College  पास कर ,उनेह डॉक्टरी में सेवाग्राम मेडिकल कॉलेज में दाखला मिल गया। शहर में धूम मच गयी।
  इन ५ सालों में जब वो मेडिकल स्टडी कर रहे थे हम दोनों में दूरी ,फासले बढ़ गए। छुटियों में जब वह घर आते उनके और उनके दोस्तों के दरमियान हम कबाब में हड्डी हुवा करतें । छुटियों के खात्मे पर जिस वक़्त उन की सेवाग्राम रवानगी होती जलगाओं स्टेशन तक उनके दोस्तों की बारात उनेह अलविदा कहने के लिए होती।
  MBBS करने के बाद शायद वह हमारे ख़ानदान के पहले शख्स थे जिनोः ने हवाई सफर किया। बिहार में चेचक ज़ोर व शोर से फैली थी लोग कीड़ों मकोड़ों की तरह मर रहे थे। WHO कर्कुनान के साथ मिल कर उनोह ने दुनिया से चेचक के ख़ात्मा कर दिया।
  एसएससी के बाद दादाभाई ने मुझे मुंबई बुला लिया। तब तक में काफी सेहत मंद हो गया था उम्र में  डॉ वासिफ के बराबर नज़र आने लगा था। फिर ये हुवा के उनोह ने मुझे अपने दोस्त का दर्जा दे दिया। गुजरात में वह मेडिकल ऑफ़िसर बन गए। अब्बा और जावेद उस दौरान मुंबई आ गए थे। वो छुट्टियों में मुंबई आते हम साथ साथ मुंबई की सड़कों की खाक छाना करतें। फ़िल्में ,शूटिंग ,मुशयरें ,ड्रामे देखा करतें। INTER SCIENCE में नाकामी से में काफी मायूस हो चूका था शायद तालीम छोड़ बैठता ,मुझ में खुद एत्मादि लौटने में, में उनेह ज़िम्मेदार समझता हूँ। मेरे और जावेद के लिए रिश्ते की तलाश और बाद में हमारी शादी करवाने में भाई साहेब और भाभी जान का हाथ रहा है।
  फ़िल्में देखने का उनेह शौक़ था। छुट्टियों  मुम्बयी  आने के बाद या तो फिल्म देखते या अब्बा से गरम गरम बहस करते नज़र आते। उनकी यही कोशिश होती के अब्बा किसी तरह उन के नज़रिये से मुत्तफ़िक़ होजाये ,लेकिन कामयाबी शायद ही मिल पाती।
  हम दोनों में उन दिनों काफी मुशबीहाट हुवा करती। अपनी शनाख्त कायम रखने के लोए में ने डर के मारे फ्रेंच कट दाढ़ी रख ली थी। इसके बावजूद मज़्हका खेज़ वाक़ेआत रुनुमा होजाते थे। मेरे एक दोस्त से सुबह मेरी मुलाक़ात हुवी -शाम में उनेह भाई साहेब नज़र आगये कहने लगे "रागिब साहब आप ने  दाढ़ी क्यों मुंडवा दी।
  वक़्त गुज़रने के साथ साथ में उन से ज़ियादा  सेहतमंद होगया और लोग मुझे उनका बड़ा भाई समझने लगे। मेरे दोस्त तो इस बात से वाक़िफ़ थे के वो मुझ से उम्र में बड़े हैं लेकिन अक्सर जब उन के दोस्तों से मेरा तारुफ़ छोटा भाई कह कर करवाते तो लोगो के चेहरे पर बेयक़ीनी पढ़ी जा सकती जैसे कहना चाहते हो "क्यों माज़क़ कर रहे हो साहब ".
  रास्त गो इतने के ये रास्त गोई मसीबत के वजह भी बन जाती है। एकदिन गोवंडी से बस के ज़रिये हम बसंत फिल्म देखने जारहे थे। रस्ते में टाटा नगर मस्जिद के क़रीब उनेह एक घर के बाहर बाबा का बोर्ड नज़र आया हर क़िस्म की बीमारी इलाज,भूत पारित जिन आसिब के साये से नजात, बाबा पर फ़िक़रे कस दिए इत्तेफ़ाकन इसी बस में उनिह बाबा के  दूसरी बीवी भी सवार थी वो सलवातें सुनायी के कान बंद करने पड़े।
  में भी अक्सर फुर्सत मिलते ही उन के पास पहुँचता।  व्यारा ,बालपूर , मियांगाम कर्जन उनिह के वजह से देखने को मिले। उनेह  मेंने  बेहतरीन administrator पाया। स्टाफ पर उनका रुआब छाया रहता था। उनके ज़रिये अजीब अजीब शख्सियतों से जान पहचान हुवी। कर्जन में उनके स्टाफ में ड्राइवर की अजीब आदत थी कभी मूं खोल कर बात न करता था मानो शीशे का बना हो। उनकी OPD में हमेशा मरीज़ों का ताँता बंधा देखा और ये भी  सख्ती कभी नरमी प्यार से मरीज़ों से निपटते रहतें।
  अब उम्र की ६५ मनज़िलें फलांग चुके हैं ,तरक़्क़ी करते करते DHO की पोस्ट तक पहुँच कर पेंशन पा चुके है। चाय खाना छोड़ चुके है ,हज के फ़र्ज़ से दोनों मियां बीवी फ़राग़त पा चुके हैं। मज़हब की तरफ रागिब हो गएँ है। बच्चों की शादियों फ़ारिग़ हो गए हैं पोता ,नवासी को जोड़ों खिला रहे हैं। तबियत में शगुफ़्तगी नरमी आगयी है लेकिन काले  बालों को देख उम्र का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है।
  चहरे से किरदार परखने में माहिर मेरे हमदम मेरे दोस्त अक्सर बीमारी और दुनयावी मामलात में में ने उन के अमश्वरों अमल किया हूँ और कामयाब रहा हूँ। ग़ालिब के शेर की हूँ बहु नक़ल है। न सताइश की तमन्ना ने सिले की परवाह के मिस्दाक़ खिदमत ख़ल्क़ में मसरूफ उम्र ,ओहदा ,शोहरत के बावजूद दिन बी दिन उन की तबीअत  में ग़रूर की बजाये अजज़ बढ़ते देखा। ऐसी पुरखुलुस शख्सियत दुनिया उनेह डॉ वासिफ से जानती हैं लेकिन वह हमारे लिए है "हमारे दूलह दादा "