मेरी डायरी के एक पन्ना
सिदरा आयी हुयी है। उसकी मासूम हरकते देख कर दिन ऐसा गुज़रता है पता नहीं चलता। ९ महीने की माशा,अल्लाह हो चुकी है। कायदे से बैठने लगी है ,बात बात में सर हिलती है और ताली भी बजाने लगी है। कभी कभी रोते रोते भी ताली बजाने लगती है।
तुम आगये हो नूर आगया है
लोग हसना भूल गए हैं वह इस लिए नहीं के उनेह हसना नहीं आता ,बल्कि इस लिए के वह हसना नहीं चाहते। सिदरा के साथ १० दिन गुज़ार कर हसने की आदत लौट आयी। शायद उसकी नानी जान ने इन दस दिनों में १ साल के हसने का कोटा पूरा कर लिया। हम दोनों नाना ,नानी का बचपना लौट आया। सिदरा के लिए हम दोनों ने गाया भी ,नाचा भी और ज़ोरदार क़हक़हे भी लगाए। उसकी मासूमियत देख कर दिल उसकी तरफ किछ जाता है। सिदरा अब खड़े रहने की कोशिश भी करती है। रेंगने भी लगी है। अल्लाह अल्लाह बोलने पर आगे पीछे झूमने लगती है। बहुत काम वक़्फ़ा हम लोगों के साथ गुज़ार कर वह हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गयी। जाते जाते वह एक खला (vacuum ) छोड़ गयी। अल्लाह उसे सलामत रखे आमीन सुम्मा आमीन।
सिदरा के सुनने के लिए लगाए गए बच्चों के गीत लकड़ी की काठी ,नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए ,तीन मोठे हाती घूमने चले ,बन्दर ने खोली दूकान ,ग़ुब्बारे वाला हम को ज़बानी याद होगये। सिदरा के साथ हसींन लम्हात गुज़ार कर हम अपने आप में नयी ताज़गी महसूस करने लगे हैं। जब वह हम से जुदा हुयी तो मझे यूँ महसूस हुवा
वक़्त खुश खुश काटने का मश्वरा देते हुए
रो पड़ा वो आप ,मुझको हौसला देते हुए
वो हमें जब तलक नज़र आता रहा ,तकते रहे
गीली आँखों उखड़े लफ़्ज़ों से दुआ देते हुए