सोमवार, 22 जनवरी 2018

Appeal

अलहसनात उर्दू हाई स्कूल तुर्भे   में १० वी standard तक झोपड़पटी के गरीब बचे बगैर fees के पढाये जातें हैं। government recongnised स्कूल है। grant भी मिलती है। बड़ी मश्किलों से स्कूल की बिल्डिंग खड़ा की गयी है। रउफ   खान जो इंजीनियर है IRRIGATION DEPT से RETIRE हुवे है। बड़ी मेहनत करते है। मस्जिद और मदरसों को चंदा मिलना आसान है स्कूल के लिए कोई contribution नहीं देता। स्कूल में एक रूम allot किया गया है liberary के लिए। किताबें नवीद अंजुम  ने donate करने का promise किया है। मैं खुद भी इंशाल्लाह अपने पास की तमाम उर्दू किताबें स्कूल के लिए donate करने का इरादा रखता  हूँ। अल्लाह क़बूल करले। furniture .lights ,fans ,door ,windows के लिए १ लाख रूपये estimated लाग़त आ सकती है। अल्हम्दोलीलाह नाएला,उज़्मा ,नावेद और कुछ दोस्तों ने ३०,०००
रुपये डोनेशन दिए है। आप सब लोगों से request है के  ज़्यादा से ज़्यादा contribution दे कर सवाबे जारिया के हक़दार  बने। ग़रीब बच्चें इस facility का फायदा लेंगें सबको दुआएं मिलेंगी। 

बुधवार, 17 जनवरी 2018

Wabista rah shajar se umide bahar rakh

उनसे ज़रूर मिलना क़रीने के लोग हैं
सय्यद ज़ाकिर  अली नजीबुतरफ़ाइन (अम्मी अब्बू दोनों सय्यद है )एरंडोल जैसे छोटे कसबे में जन्म लिया। इंजीनियरिंग की  तालीम हासिल की। खुशकिस्मत रहे irrigation deparntment में job  मिल गया। लोगों को सैराब करते करते ज़िन्दगी गुज़र गयी। अछे इंसान ,खुश इख़लाक़ ,खुश मिज़ाज तो है ही ,अपने खानदान की रिवायत कायम करते हुवे अच्छा लिख भी लेते है। उनकी छोटे छोटे अफ़सानो पर मुश्तमिल किताब “रास्ते बंद है ” नज़रों से गुज़री बहुत खूबसूरत छोटी छोटी stories लिखी है। मुबारकबाद के मुस्तहक़ है।
ढूंढ उजड़े हुवे लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तेजी शायद के खराबों (खँडरात ) में मिले
सय्यद ज़ाकिर को  अपने बुज़र्गों से बेइंतिहा अक़ीदत है। लिखना उनेह अपने नाना काज़ी मुशाहिद अली (कलमी नाम फिरोज हाश्मी )से विरासत में मिला है। हाल ही में उनके दो articles एरंडोल की history और वहां के शायरों और मशहूर writers   के बारे में पड़ने को मिले। बड़े ऑथेंटिक हवालों से सय्यद ज़ाकिर ने ये आर्टिकल्स लिखे हैं। अब्दुल रसूल कमतर (१८४६ से  १९१९ )एरंडोल के मशहूर शायर की biography लिखते लिखते उनोहने एरंडोल की हिस्ट्री बयां कर दी। बक़ौल ज़ाकिर ,कहा जाता है है अलाउद्दीन खिलजी (१३१०-१३७० )और उनके सिपाह सालार मलिक काफूर ने देवगिरि पर हमले से पहले एरंडोल में कई दिन कायम किया यहाँ मस्जिद और फौजी छावनी भी बनायीं थी। इसी  period में नामी बुज़ुर्ग खुरम खथॉल जो निज़ामुद्दीन औलिआ के मुरीद थे ,एरंडोल को अपना मस्कन बनाया और लोगों में इस्लाम की तालीम आम की। आज भी उनका आलिशान मज़ार अपनी शान शान शौकत के साथ एरंडोल में क़ायम है। इस सिलसिले को हज़रात शाह वाजिहुद्दीन गुजरती के पोते सय्यद शरीफुल्ला साहेब ने आगे बढ़ाया। १३७० के बाद २०० साल खानदेश पर फ़ारूक़ी ख़ानदान हुकूमत करता रहा। सय्यद ज़ाकिर के शुक्र गुज़ार है की उनोहने तारीख के पन्नों पर पड़ी गर्द को साफ़ कर एरंडोल के रौशन माज़ी को हमारे रूबरू कराया। बचपन से हम कई मर्तबा जामे मस्जिद एरंडोल और खुरम खत्ताल मिया की दरगाह देखते आये है।लेकिन उसके बैकग्राउंड से अँधेरे में थें।