शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

Pohnchi wahi pe khak Jahan ka khameer tha

                                            पोहंची वही पे खाक जहाँ का ख़मीर था
अलहाज ज़ैनुलआबेदीन सैय्यद बरोज़ मंगल ७ अप्रैल २०१५ को इस दारे फानी से कुच कर गए। मरहूम  ने ८० साल की लम्बी उम्र पायी। ३ लड़के ,१ लड़की ६ पोते पोतियाँ  ,२ नवासियानं अपनी यादगार में  छोड़ गए। ५ साल पहले उनकी बीवी की मौत, हज से लौटने बाद हुयी थी। मरहूम ने इस संगीन सानेह को बडे ही जिगर गुर्दे से बर्दाश्त किया था। अक्टूबर -२०१४ में अपने छोटे भाई ख़लीक़कोद्दिन ( भैया मामू ) की मौत ने उनेह शिकस्त दिल कर दिया। उनोह ने ज़िन्दगी की जंग उसी वक़्त हार दी ,बिस्तरे मर्ग से नाता जोड़ लिया। इसी सदमें ने उनेह बे दम कर दिया। नवापुर की कारोबारी ज़िन्दगी से वह कभी भी हम आहंग न हो पाये थे। भैया मॉमू की दुकान पर वह चंद फरहत बक्श लम्हे गुज़ार ज़हनी सुकून पा लेते थे। वरना नवापुर उन जैसे ज़िंदादिल ,अदब नवाज़ ,शायरी पसंद शख्स के लिए "ज़बान मिली है मगर हम ज़ुबान नहीं मिलता " के मिस्दाक़ था।
         मरहूम सय्यद खानदान के चश्म चिराग़ थे और इस खानदान का शिजरा अहमदाबाद के शाह वजिहोद्दीन से मिलता है जो अपने ज़माने के मारूफ वली ,बुज़ुर्ग थे। सदियों बाद भी उन का मज़ार अहमदाबाद में इसी शान शौकत से कायम है और हर साल बड़ी धूम धाम से उन का उर्स बतौर यादगार मनाया जाता है। मरहूम वजीह ,खूबसूरत थे। लम्बा कद ,शफ़ाफ़ रंग ,दिलकश झील सी नीली आँखों के मालिक थे। सूट पहन लेते तो अपने जमाने के मारूफ फिल्मस्टार को मात दे सकते थे। अलावा खूब सीरत भी थे। ज़िन्दगी में कभी किसी की बुराई नहीं की। रिश्तेदारों में हमेशा भाई चार्गी ,मोहब्बत कायम रखने की तलकीन करते। जलगाव एंग्लो उर्दू स्कूल से मेट्रिक करने के  बाद कुर् ,भिवंडी में कुछ अरसा स्कूल टीचर के पेशे से वाबस्तगी रही। ब्रूक बांड चाय कम्पनी में ज़माने तक डेपी मैनेजर रहे अपने  मारेफ़त कई लोगों को नौकरी दिलवाई। कंपनी के प्रोडक्ट को अपनी कोशिशों  से पर्काशा ,धड़गाओं और शहादा तालुके के कोने कोने में पहंचाया। कंपनी से उनेह कई अवार्ड्स भी मिले। उस ज़माने में कंपनी की सालाना रिपोर्ट में उन की तस्वीरें और उन के काम की तारीफ़ भी छपी लेकिन वह अपने ख़ुलूस ,ईमानदारी ,और अपने उसूलों से कभी भी उनोहने  समझोता न किया।

"न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह "  उनकीं ज़िन्दगी का मकसद ही यही था। कौम से दिली हमदर्दी लगाव था।शायद  इसी लिए डॉक्टर इक़बाल की शायरी बे हद पसंद करते। उर्दू ज़बान और शायरी से इंतेहा की अक़ीदत थी।
         शहादा में रहाईश के दौरान वह अदबी  ,तालीमी और  मुस्लिम समाज की तामीर में तन मन धन से लगे रहे। lion   club के fonder members थे। सर सय्यद उर्दू स्कूल  की शहादे में बुनियाद रखी गयी तो मरहूम  ने डायरेक्टर और ख़ज़ांची के फरायज़ अंजाम दिए। बज़्म  नौ  लयबरारी  के तहत मुशायरे ,अदबी प्रोग्राम्स में बाद चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उस ज़माने के मसहूर अदीब कृष्णा चन्द्र ,जोए अंसारी ,जान निसार अख्तर को दावत दे कर एक कामयाब प्रोग्राम भी उनोह ने किया था। उन के दोस्तों का हल्का रंगा रंगा दोस्तों पर मुश्तमिल था प्रोफेसर  खान,अक्कौंटैंट मेहमूद ,इस्माइल साहेब जो शहदा के बड़े बिज़नेस करने वालों में शुमार होता है। इन तमाम मसरूफियत के बावजूद अपनी औलाद अपने खांदान की परवरिश भी मिसालि तरह से की। और  उन की औलाद ने भी आखरी लम्हों में उन की बेलूस  खिदमत कर
एक मिसाल कायम कर दी।
          कुछ  लोग अलग  अलग ज़बान  सीखने में  हैं माहिर होतें हैं ,मरहूम भी कई ज़बाने अहले ज़बान की तरह बोलने पर कादिर थे। मराठी,ऐरणी ,भील भाषा ,इन्गलिश,हिंदी और उर्दू में तो उन का जवाब ही नहीं था।
         लांवुं कहाँ से दूसरा तुझ सा कहूँ जिसे
       ८ अप्रैल को उन के जनाज़े में एक जम्मे अफ़िर ने शिरकत की। आज तक ताज़ियत करने वालों का सिलसिला जारी है। अल्लाह से उन की मग़फ़िरत के लिए दुआ गो हूँ, अल्लाह उनेह अपनी जवारे रहमत में जगा अता करे अमीन सुमा अमीन
         खुदा मग़फ़िरत करे बहुत सी खूबियां थी मरने वाले में।