मरहूम हाजी सय्यद सईद अहमद (बना भाई )
अल्फ़ाज़ व सूरत व रंग व तस्सवर के रूप में
ज़िंदा हैं लोग आज भी मरने के बावजूद
अल्फ़ाज़ व सूरत व रंग व तस्सवर के रूप में
दूल्हे मामूं की मौत पर खाला जान (अकीला ) से बातों बातों में पता चला के वह ७९ सालों की होगयी हैं और सईद अहमद (गोरे मामूं ) उन से ४ साल छोटे ,यानि अगर आज वो हयात होते तो ७५ बरस के होजाते।
तुम याद आये साथ तुम्हारे गुज़रे ज़माने याद आये
तुम याद आये साथ तुम्हारे गुज़रे ज़माने याद आये
- हाजी सईद अहमद अपने चार भाईयों ( हाजी अफ्ज़लोद्दीन ,ग़ुलाम महियोद्दीन ,मुहम्मद युसूफ ) और तीन बहनों (बिस्मिल्ला ,अकीला ,जीलानी) में सब से छोटे थे। सब की आँखों का तारा , माँ ,बाप (इकरामुद्दीन,मुमताज़ बेगम ) के नूरे नज़र थे। सईद अहमद से उन की उर्फियत बना भाई कैसे होगयी, ये एक राज़ ही है। तमाम भाइयों में सब से छोटा कद उनिह का था। रंग सफ़ेद माईल (बेहद गोरा ) था। बोलती हुवी ऑंखें ,सर बार घनेरे बाल। नफासत पसंद थे।खुश मिज़ाजी कूट कूट कर भरी थी। सफ़ारी पह्नने के शौक़ीन। किसी ज़माने में wiber smith की imported Pistol लिए घूमते थे। लइसेंस भी बनवा रखा था। double boar वाली gun भी थी ,कभी कभी शिकार भी खेल लेते थे। अच्छे खानो का उनेह शौक़ था। खाने से ज़ियादा उन्हे लोगों को खिलने का शौक़ था।
जाने वो कैसे लोग थे जो मिल के एक बार
नज़रों में जज़्ब हो गये दिल में उतर गए
नज़रों में जज़्ब हो गये दिल में उतर गए
मरहूम इंजीनियर हाजी सादिक़ अहमद और गोरे मामूँ की उम्र में ज़ियादा फ़र्क़ नहीं था। दोनों दोस्तों की तरह रहते थे। किसी ज़माने में इस्माइल युसूफ कॉलेज ,मुंबई १९६४ में साथ साथ पढ़ते भी थे। सारे कॉलेज और हॉस्टल में सादिक़ भाई की वजह से ,वो सईद अहमद की बजाये ,गोरे मामु के नाम से जाने जाते। उन के हॉस्टल के साथी अब्दुल करीम हल्दे जो रिज़र्व बैंक से डिप्टी मैनेजर के ओहदे से रिटायर हुवे है ,आज भी उन की याद करते हैं।
मरहूम ने अजीब तबियत पायी थी जीस से मिलते उस की उम्र के होजाते। डॉक्टर वासिफ के साथ वही कहकहे ,वही बेतकलुफ़ी ,मानो मामू भांजे न हो दोस्त हो। मुझ से भी वही क़ुरब , वही उन्सियत थी। हमारी छुट्टियां भड़भूँजे में गुज़रती ,रेलवे स्टेशन पर चुनी भाई स्टेशन मास्टर की ड्यूटी हुवा करती। रात में भड़भूँजा के स्टेशन मास्टर की ऑफिस में वक़्त गुज़री के लिए पत्तों की बाज़ी जमती। में और गोरे मामूं पार्टनर ,डॉक्टर वासिफ और चुनी भाई एक तरफ। चुनी भाई की यही तमन्ना होती के वो किसी तरह जीत जाएँ। लेकिन वह हमेशा नाकाम ही होते क्यूंकि में और गोरे मामू चीटिंग में मास्टर थे। हम दोनों की जानिब से वो जुमले बाज़ी होती चुनी भाई को जान छुड़ाना मुश्किल होजाता।
गोरे मामू के साथ फिल्म देखते वक़्त उन को बच्चों की तरह जज़्बात के धारे में बहते देखा। emotional scenes में वो आंसू बहाते ,कॉमेडी और fighting scene में जब वो ताली बजा कर दाद देते तो सारा हाल तालियों से गूँज उठता।
जीते है शान से
मरहूम की पैदाइश नवापुर में हुवी थी। सार्वजनिक मराठी स्कूल से ११ तक पढ़ाई की। ,जोगेश्वरी के, उस ज़माने के मशहूर कॉलेज इस्माइल युसूफ से inter पास किया। भोपाल यूनिवर्सिटी से उर्दू में B.A की Degree हासिल की। शायद खानदान में वे पहले डिग्री मिलाने वाले शख्स थे. LL.B( law ) में भी admission लिया था, लेकिन कारोबारी मसरूफियत की बिना पर complete न कर सके। उन की syllabus की किताबें मैं बड़े शौक से पढ़ता ,उमराव जान अदा ,बांगे दरा ,दीवाने ग़ालिब। उन के पास किताबों का खज़ाना था। मुझे पढ़ते देखते तो खुश होते।
मरहूम ने अजीब तबियत पायी थी जीस से मिलते उस की उम्र के होजाते। डॉक्टर वासिफ के साथ वही कहकहे ,वही बेतकलुफ़ी ,मानो मामू भांजे न हो दोस्त हो। मुझ से भी वही क़ुरब , वही उन्सियत थी। हमारी छुट्टियां भड़भूँजे में गुज़रती ,रेलवे स्टेशन पर चुनी भाई स्टेशन मास्टर की ड्यूटी हुवा करती। रात में भड़भूँजा के स्टेशन मास्टर की ऑफिस में वक़्त गुज़री के लिए पत्तों की बाज़ी जमती। में और गोरे मामूं पार्टनर ,डॉक्टर वासिफ और चुनी भाई एक तरफ। चुनी भाई की यही तमन्ना होती के वो किसी तरह जीत जाएँ। लेकिन वह हमेशा नाकाम ही होते क्यूंकि में और गोरे मामू चीटिंग में मास्टर थे। हम दोनों की जानिब से वो जुमले बाज़ी होती चुनी भाई को जान छुड़ाना मुश्किल होजाता।
गोरे मामू के साथ फिल्म देखते वक़्त उन को बच्चों की तरह जज़्बात के धारे में बहते देखा। emotional scenes में वो आंसू बहाते ,कॉमेडी और fighting scene में जब वो ताली बजा कर दाद देते तो सारा हाल तालियों से गूँज उठता।
जीते है शान से
मरहूम की पैदाइश नवापुर में हुवी थी। सार्वजनिक मराठी स्कूल से ११ तक पढ़ाई की। ,जोगेश्वरी के, उस ज़माने के मशहूर कॉलेज इस्माइल युसूफ से inter पास किया। भोपाल यूनिवर्सिटी से उर्दू में B.A की Degree हासिल की। शायद खानदान में वे पहले डिग्री मिलाने वाले शख्स थे. LL.B( law ) में भी admission लिया था, लेकिन कारोबारी मसरूफियत की बिना पर complete न कर सके। उन की syllabus की किताबें मैं बड़े शौक से पढ़ता ,उमराव जान अदा ,बांगे दरा ,दीवाने ग़ालिब। उन के पास किताबों का खज़ाना था। मुझे पढ़ते देखते तो खुश होते।
मिट्टी को सोना बनाना कोई उन से सीख सकता था। जो कारोबार किया आन ,बान ,शान से किया लकड़ों का कारोबार किया पूरे जंगल खरीद लिया करते थे। टट्टे वैगन भर के अहमदाबाद को रवाना करते। मछ्ली का कारोबार ,मानो एक छोटी मोटी industry चला रहे थे। उकाई dam की मछलियां कलकत्ता को भेजी जाती थी। जब तक मछली के टोकरे ट्रैन में लोड नहीं होजाते थे, ट्रैन भड़भूँजा स्टेशन पर रुकी रहती। उसी ज़माने में (१९७४ -१९७७) मरहूम बॉम्बे से कलकत्ता प्लेन से सफर किया करते थे।
बिछड़े सभी बारी बारी
1978 में अपनी पहली रफ़ीक़े हयात जिन का नाम रफ़ीक़ा ही था ,की मौत पर में ने उनेह टूटते देखा। लेकिन वसीम ,ज़की ,मोहसिन ,फरहत जहाँ की खातिर अपने आप को संभाला,एक नयी ज़िन्दगी की शुरवात की ,दोबारा अपना घर बसाया। दूसरी बार वसीम उर्फ़ बुल्या की नागहानी मौत ने उन्हें एक गहरे सदमे से दोचार किया।
मुझे सहल हो गयी मज़िले व हवा के रुख भी बदल गए
दूसरी सवानेह हयात (बीवी) फहीमुन्निसा ने भी उन का साथ खुलूस ,अपनाइयत ,बराबरी से दिया। उन के ग़म अपने दामन में समेट लिए। मरहूम माशाअल्लाह कसीर उल औलाद थे। उनोह्ने ने अल्लाह के रसूल की उस हदीस पर अमल किया, आप ने फ़रमाया था " में उम्मत के उन लोगों पर फख्र करुंगा जिन की औलाद ज़्यादा होंगी"।
नशीमान पर नशीमान इस तरह तामीर करता जा
अपने पसंद की चीज़ मुं मांगे दामों पर खरीद लिया करते थे। डॉक्टर वासिफ मुझे बता रहे थे सोनगढ़ में जो पारसी का बंगला उन्होने खरीदा था उस की कीमत इतनी ज़ियादा लगायी थी, के मालिके माकान ने एक पल की हिचकिचाहट के सौदा तय कर लिया था। उस बंगले का नक़्श आज भी मेरे ज़हन में जूँ की तूँ मौजूद है। छोटे से टीले पर चार कमरों पे मुश्तमिल ,आंगन फूलों की खुशबु से महकता ,सीताफल ,अमरुद ,आम के फलों से लदे पेड़ ,पॉलिटरी भी थी ,Servant quarters अलग से बने थे। आंगन में झूले पर बैठ कर आदमी एक और दुनिया में पहुँच जाता था। गोरे मामू को दाद दिए बिना नहीं रह सकता ,गोरी मुमानी ने उसी खुशअसलूबी से उस बंगले की देख रेख भी करती थी।
मौत का एक दिन मुअय्यन है
आखरी वक़्त तक मरहूम भड़भूँजे की दुकान करते रहे। खुशनसीब रहे, आप को हज नसीब हुवा । मौत भी पायी तो ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के शहर अजमेर में। सोनगढ़ के क़ब्रस्तान में आराम फरमा रहे है।
रहे नाम अल्लाह का।
बिछड़े सभी बारी बारी
1978 में अपनी पहली रफ़ीक़े हयात जिन का नाम रफ़ीक़ा ही था ,की मौत पर में ने उनेह टूटते देखा। लेकिन वसीम ,ज़की ,मोहसिन ,फरहत जहाँ की खातिर अपने आप को संभाला,एक नयी ज़िन्दगी की शुरवात की ,दोबारा अपना घर बसाया। दूसरी बार वसीम उर्फ़ बुल्या की नागहानी मौत ने उन्हें एक गहरे सदमे से दोचार किया।
मुझे सहल हो गयी मज़िले व हवा के रुख भी बदल गए
दूसरी सवानेह हयात (बीवी) फहीमुन्निसा ने भी उन का साथ खुलूस ,अपनाइयत ,बराबरी से दिया। उन के ग़म अपने दामन में समेट लिए। मरहूम माशाअल्लाह कसीर उल औलाद थे। उनोह्ने ने अल्लाह के रसूल की उस हदीस पर अमल किया, आप ने फ़रमाया था " में उम्मत के उन लोगों पर फख्र करुंगा जिन की औलाद ज़्यादा होंगी"।
नशीमान पर नशीमान इस तरह तामीर करता जा
अपने पसंद की चीज़ मुं मांगे दामों पर खरीद लिया करते थे। डॉक्टर वासिफ मुझे बता रहे थे सोनगढ़ में जो पारसी का बंगला उन्होने खरीदा था उस की कीमत इतनी ज़ियादा लगायी थी, के मालिके माकान ने एक पल की हिचकिचाहट के सौदा तय कर लिया था। उस बंगले का नक़्श आज भी मेरे ज़हन में जूँ की तूँ मौजूद है। छोटे से टीले पर चार कमरों पे मुश्तमिल ,आंगन फूलों की खुशबु से महकता ,सीताफल ,अमरुद ,आम के फलों से लदे पेड़ ,पॉलिटरी भी थी ,Servant quarters अलग से बने थे। आंगन में झूले पर बैठ कर आदमी एक और दुनिया में पहुँच जाता था। गोरे मामू को दाद दिए बिना नहीं रह सकता ,गोरी मुमानी ने उसी खुशअसलूबी से उस बंगले की देख रेख भी करती थी।
मौत का एक दिन मुअय्यन है
आखरी वक़्त तक मरहूम भड़भूँजे की दुकान करते रहे। खुशनसीब रहे, आप को हज नसीब हुवा । मौत भी पायी तो ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के शहर अजमेर में। सोनगढ़ के क़ब्रस्तान में आराम फरमा रहे है।
रहे नाम अल्लाह का।