सुनी हिकायतें हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
हमारे खानदान में ननिहाल में बड़ो को इज़्ज़त से बुलाने के लिए अजीब से खितबात से नवाज़ा जाता ,दूल्हे दादा मुझ से उम्र ४ साल बड़े हैं ज़िन्दगी में सिफ एक बार दूल्हा बने लेकिंन हमारी नज़रों में उनकी उरफ़ियत वही रही ,हालांकि बाद में उन्हों ने सेवाग्राम से डॉक्ट्रेट की डिग्री हासिल कर ली और डॉ वासिफ अहमद कहलाये ,उन के बचपन के वाक़ेआत सिर्फ अब्बा ,आपा से सुने हैं। सुना है उस ज़माने के फाइनल इम्तेहान ,जो सातवीं जमात के बाद होते थे ,जनाब ने शुहरत के झंडे गाड़ दिए थे। एक दिन उन के प्राइमरी स्कूल के ज़माने के उस्ताद शफी जनाब से बस के सफर के दौरान ,इत्तेफ़ाकन मुलाक़ात हो गयी कहने लगे " जिस तरह पूत के पांव पालने में नज़र आजाते हैं तुम्हारे भाई साहेब डॉ वासिफ अहमद बहुत ज़हीन हुवा करते थे उसी वक़्त में ने अंदाज़ा लग लिया था के ये ज़िन्दगी में कुछ न कुछ कर दिखायेंगें "
बचपन में कद छोटा था तुनक मिज़ाजी और नफासत मिज़ाज में कूट कूट कर भरी थी।
उन से ज़रूर मिलना सलीके के लोग हैं
सर भी क़लम करे करेंगे बड़े एहतेमाम से
स्कूल के ज़माने में text की किताबें साल भर इस्तेमाल करने के बाद पौन कीमत में बेच दिया करते थे। खाने में भी नफासत थी अक्सर छोटी आपा उनके लिए एक पियाली में सालन और दो सुथरी बोटियाँ निकल कर अलग से रख दिया करती। उस ज़माने में ज़ाहिद, राशिद ,जावेद और में बदनसीब उनकी रिआयत हुवा करते और वह किसी बेताज बादशाह की तरह हम पर हुकूमत करते। उन के घर पहुँचते ही हम लोग कोनो खदरों में घुस जातें। मानो कर्फू लग गया हो। वरना बात बात पर हम सब की पिटाई होती और हम बेबस उनेह नालायक़ बद्तमीज़ कह अपनी भड़ास निकल लिया करते। सब से ज़ियादा में उन की ज़ियादतियों का शिकार होता कुयकिं में उनका पीट शरीक भाई था। जनाब तो शान से सलून में हेयर कटवा कर आतें और हम सब को ज़बरदस्ति चार आने में सुकलाल मामा ,जो हजामत की पेटी लिए घर घर घूमता था , से बेढब से बाल कटवाने पडतें। अगर वह भी कभी महगांई का रोना रो कर ५ पैसे ज़ियादा मांगता तो उसे भी डांट पड़ती "बाल काटने आतें नहीं और करते हो पैसे बढ़ाने की फालतू बात ,अगली बार से आने की ज़रुरत नहीं" और उस के रोंगटें खड़े होजाते दाम बढ़ने से तौबा कर लेता। हमारी धोबन भी उनके सामने आने से कतराती थी,क मुझे याद है ५ पैसे कपडे पर बढ़ाने के लिए उसे नाकों चने चबाना पढ़ते । आज सोचता हूँ तो अहसास होता है उन की इस हिकमत अमली से अब्बा को किस क़द्र सहारा मिलता होगा, जो ५५ रूपयें महीने की पेन्शन में घर की गाडी को खीचने की नातमाम कोशिश करते थे।
ज़िन्दगी नाम हैं यादों का तल्ख़ और शीरीं
बचपन की कुछ यादें ज़हन पर लायानी नुक़ूश छोड़ जातीं हैं भुलाये नहीं बोलतीं। देव आनंद की असली नक़ली फिल्म रिलीज़ हुवी थी बहुत हिट हुवी थी। मुझे स्कूल से हरे महीने १० रूपये स्कालरशिप मिला करती थी उस में से अब्बा की तरफ से महीने में एक फिलम देखने के लिए ६० पैसे मिला करते थे। जलगाव में चित्रा सिनेमा में यह फिल्म लगी थी। लम्बी क़तार छोटी सी टिकट खिड़की हुवा करती ,लोग एक दूसरे के सरों पर चलतें हुवे खिड़की तक पहुंचतें ,टिकट निकलना भी मानो एक आर्ट था। में ने एक अजनबी शख्स को टिकेट निकलने के लिए पैसे दिए जो टिकेट खिड़की के पास था ,वह भीड़ में ऐसा ग़ायब हुवा जैसे गधे के सर से सींग। जाने भाई साहब को कैसे पता चल गया। में ३ घंटे आवारा गर्दी करके घर पहुंचा शायद किसे पता न चले । घर लौटने पर बही साहेब प्यार से पूछने लगे फिल्म दख आये ? में ने झूट मूट कह दिया होटल चला गया था फिल्म देखने का मूड न था। "पुछा क्या क्या खा आये " में ने कहा "लड्डू पेड़े " पूछने लगे और क्या क्या ?में गड बड़ा गया ,फिर तो खूब लाल पीले हुए। फिर वह पिटाई हुई क्या बताऊ तौबा। लेकिन जिंदगी भर के लिए सबक मिला ,और फिर कभी किसी से झूट बोलने की जुर्रत न हुयी।
बचपन एक हादसा , भाई साहेब स्कूल से लौटते हुवे नटवर थिएटर के क़रीब एक बिजली के खम्बे से टकरा कर बेहोश होकर गिर पड़े थे। दोस्तों ने उनेह घर पुह्चाया था। कई घंटों के बाद उनेह होश आया था ,अब्बा और हम सब बहुत परेशान हुवे थे।लेकिन जैसे फिल्मों में होता है, हीरो की याददाश्त किसि हादसे के बाद लोट आती है , उस हादसे के बाद ,डॉ साहेब की ज़हानत में ज़रूर तर्रकी हुवी थी वल्ला आलम बिसव्वाब।
उस ज़माने में क्रिकेट का उनेह जूनून था। उन का फ्रेंड सर्कल भी रंगा रंग हुवा करता था। रहीम, अनीस ,रउफ और मुनाफ जो नक्काली में इन्तेहाई माहिर था। रशीद वकील उस ज़माने जलगाओं के मशहूर वकील हुवा करते थे, मगर हिकलाया करते थे। मुनाफ हूबहू नक़्क़ाली किया करता किस तरह जज से आर्गुमेंट करते होंगे अपनी तरफ से मिर्च मसाला लगा कर तमाम दोस्तों के सामने नक़ल निकलता ,दोस्तों में वकील साहब का बेटा रउफ भी हुवा करता बेचारा जुज़ बुश हो कर रह जाता। हमारे मोहल्ले कटिया फ़ैल में हमारे पड़ोस में मियां खान रहते थे ,जलगाव सिविल कोर्ट में चपरासी हुवा करते थे। उनेह म्यूं से चिड़ होगयी थी ,अक्सर डॉ वासिफ और उनके दोस्तों के मज़ाक का निशाना बना करते। एक दिन मुझे कहने लगे "अपने भाई और उन के दोस्तों समझा देना एक दिन सब को जज साहेब के सामने खड़ा कर दूंगा मेरी उन से बड़ी अछि जान पहचान है "
१९६५ में भारत पाक जंग होरही थी मोहल्ले में सिर्फ गुलबास खान मिस्त्री के पास रेडियो हुवा करता था, बड़े ज़ोरो शोर से रेडियो पाकिस्तान से ख़बरें नशर हो रही थी। यही मियां खान बीच सड़क पर खटिया डाले ख़बरों से लुत्फ़ अन्दोज़ हो रहे थे के ,डॉ साहेब के कुछ दोस्त आ धमके और हसीं मज़ाक हल्ला गुल्ला करने लगे। मियां खान को खलल हुवा ,आग बगुला होगये। लेकिन मामला इस तरह रफा दफा हुवा के भाई साहेब और उन के दोस्तों ने उनेह इस बात का अहसास दिलाया के ,रेडियो पाकिस्तान से ,जंग के दरमियान खबरें सुन्ना जुर्म था। उनेह इस बात का भी अहसास होगया के शायद उनेह अपनी ही कोर्ट में मुजरिम की तरह खड़ा होना पड़े।
फिर उनोह ने अपनी ज़हानत का एक और सबूत दिया एसएससी में distinction में कामयाबी। जिस साल उनोह ने एसएससी पास कर एंग्लो उर्दू हाई स्कूल जल्गाओं को अलविदा कहा में ने आठवी क्लास में एंग्लो में दाखला लिया। प्रिंसिपल सय्यद सर की केबिन में टॉप करने वाले बच्चों की , बोर्ड पर लिस्ट लटकी हुवी थी ,और अब भी है ,डॉ वासिफ का नाम भी उस में शामल था। एंग्लो में हमें डॉ वासिफ के छोटे भाई के नाम से शोह्तात हासिल हो गयी। उन के नाम से कहीं फायदा पोहंचता तो कहीं नुकसान। अछे नंबर मिलते तो कहा जाता ज़हानत वर्से में मिली है। शरारत करते तो हमें शर्म दिलाई जाती वासिफ के छोटे भाई होकर ऐसा काम करते हो शर्म नहीं आती। एक बार एम . ऐन . सय्यद सर क्लास में दाखिल होरहे थे किसी ने मुझ से पूछा किस सर का लेक्चर है में ने सर को नहीं देखा था, बेख्याली में बोल गया ,एम. एन. का, बंडू का ,जो उन की उरफ़ियत थी , मुझ पर बहुत घुस्सा हुवे कहने लगे "ऐसी बात कहते शर्म नहीं आती ,नाज़ था जिन पे वही पत्ते हवा देने लगे ,कहाँ वासिफ अहमद कहाँ तुम "
अब्बा की मामूली पेनशन ,घर में तंगदस्ती थी। जलगाओं का छोटा सा घर अब्बा,छोटी आपा ,दूल्हे भाई, जावेद ,में और आपा के तीन छोटे बचें। घर में धमाँ चोकड़ी हुवा करती। रात में मिटटी के तेल की लालटेन जला करती। भाई साहेब की पढ़ाई का तरीका भी अजीब हुवा करता। सर्दी में फिर भी ग़नीमत था, गर्मी के मारे लोगों का बुरा हाल होता वह भी जल्गाओं की गर्मी उफ़ !लेकिन जनाब लोहे के पलंग को इर्द गिर्द से चादर से ढांप कंदील और किताबें लेकर घुस जाया करते ,पढ़ाई में मसरूफ होजतें ,फिर न उनेह बच्चों की चीख पुकार सुनायी देती न मोहल्ले के सरकारी नल पर औरतों की घमसान लड़ाई। आज सोचता हूँ तो लगता है इस हब्स में इंसान का दम घुट जाये। इंिनिह हालत में इंटर साइंस का EXAM M.J.College पास कर ,उनेह डॉक्टरी में सेवाग्राम मेडिकल कॉलेज में दाखला मिल गया। शहर में धूम मच गयी।
इन ५ सालों में जब वो मेडिकल स्टडी कर रहे थे हम दोनों में दूरी ,फासले बढ़ गए। छुटियों में जब वह घर आते उनके और उनके दोस्तों के दरमियान हम कबाब में हड्डी हुवा करतें । छुटियों के खात्मे पर जिस वक़्त उन की सेवाग्राम रवानगी होती जलगाओं स्टेशन तक उनके दोस्तों की बारात उनेह अलविदा कहने के लिए होती।
MBBS करने के बाद शायद वह हमारे ख़ानदान के पहले शख्स थे जिनोः ने हवाई सफर किया। बिहार में चेचक ज़ोर व शोर से फैली थी लोग कीड़ों मकोड़ों की तरह मर रहे थे। WHO कर्कुनान के साथ मिल कर उनोह ने दुनिया से चेचक के ख़ात्मा कर दिया।
एसएससी के बाद दादाभाई ने मुझे मुंबई बुला लिया। तब तक में काफी सेहत मंद हो गया था उम्र में डॉ वासिफ के बराबर नज़र आने लगा था। फिर ये हुवा के उनोह ने मुझे अपने दोस्त का दर्जा दे दिया। गुजरात में वह मेडिकल ऑफ़िसर बन गए। अब्बा और जावेद उस दौरान मुंबई आ गए थे। वो छुट्टियों में मुंबई आते हम साथ साथ मुंबई की सड़कों की खाक छाना करतें। फ़िल्में ,शूटिंग ,मुशयरें ,ड्रामे देखा करतें। INTER SCIENCE में नाकामी से में काफी मायूस हो चूका था शायद तालीम छोड़ बैठता ,मुझ में खुद एत्मादि लौटने में, में उनेह ज़िम्मेदार समझता हूँ। मेरे और जावेद के लिए रिश्ते की तलाश और बाद में हमारी शादी करवाने में भाई साहेब और भाभी जान का हाथ रहा है।
फ़िल्में देखने का उनेह शौक़ था। छुट्टियों मुम्बयी आने के बाद या तो फिल्म देखते या अब्बा से गरम गरम बहस करते नज़र आते। उनकी यही कोशिश होती के अब्बा किसी तरह उन के नज़रिये से मुत्तफ़िक़ होजाये ,लेकिन कामयाबी शायद ही मिल पाती।
हम दोनों में उन दिनों काफी मुशबीहाट हुवा करती। अपनी शनाख्त कायम रखने के लोए में ने डर के मारे फ्रेंच कट दाढ़ी रख ली थी। इसके बावजूद मज़्हका खेज़ वाक़ेआत रुनुमा होजाते थे। मेरे एक दोस्त से सुबह मेरी मुलाक़ात हुवी -शाम में उनेह भाई साहेब नज़र आगये कहने लगे "रागिब साहब आप ने दाढ़ी क्यों मुंडवा दी।
वक़्त गुज़रने के साथ साथ में उन से ज़ियादा सेहतमंद होगया और लोग मुझे उनका बड़ा भाई समझने लगे। मेरे दोस्त तो इस बात से वाक़िफ़ थे के वो मुझ से उम्र में बड़े हैं लेकिन अक्सर जब उन के दोस्तों से मेरा तारुफ़ छोटा भाई कह कर करवाते तो लोगो के चेहरे पर बेयक़ीनी पढ़ी जा सकती जैसे कहना चाहते हो "क्यों माज़क़ कर रहे हो साहब ".
रास्त गो इतने के ये रास्त गोई मसीबत के वजह भी बन जाती है। एकदिन गोवंडी से बस के ज़रिये हम बसंत फिल्म देखने जारहे थे। रस्ते में टाटा नगर मस्जिद के क़रीब उनेह एक घर के बाहर बाबा का बोर्ड नज़र आया हर क़िस्म की बीमारी इलाज,भूत पारित जिन आसिब के साये से नजात, बाबा पर फ़िक़रे कस दिए इत्तेफ़ाकन इसी बस में उनिह बाबा के दूसरी बीवी भी सवार थी वो सलवातें सुनायी के कान बंद करने पड़े।
में भी अक्सर फुर्सत मिलते ही उन के पास पहुँचता। व्यारा ,बालपूर , मियांगाम कर्जन उनिह के वजह से देखने को मिले। उनेह मेंने बेहतरीन administrator पाया। स्टाफ पर उनका रुआब छाया रहता था। उनके ज़रिये अजीब अजीब शख्सियतों से जान पहचान हुवी। कर्जन में उनके स्टाफ में ड्राइवर की अजीब आदत थी कभी मूं खोल कर बात न करता था मानो शीशे का बना हो। उनकी OPD में हमेशा मरीज़ों का ताँता बंधा देखा और ये भी सख्ती कभी नरमी प्यार से मरीज़ों से निपटते रहतें।
अब उम्र की ६५ मनज़िलें फलांग चुके हैं ,तरक़्क़ी करते करते DHO की पोस्ट तक पहुँच कर पेंशन पा चुके है। चाय खाना छोड़ चुके है ,हज के फ़र्ज़ से दोनों मियां बीवी फ़राग़त पा चुके हैं। मज़हब की तरफ रागिब हो गएँ है। बच्चों की शादियों फ़ारिग़ हो गए हैं पोता ,नवासी को जोड़ों खिला रहे हैं। तबियत में शगुफ़्तगी नरमी आगयी है लेकिन काले बालों को देख उम्र का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है।
चहरे से किरदार परखने में माहिर मेरे हमदम मेरे दोस्त अक्सर बीमारी और दुनयावी मामलात में में ने उन के अमश्वरों अमल किया हूँ और कामयाब रहा हूँ। ग़ालिब के शेर की हूँ बहु नक़ल है। न सताइश की तमन्ना ने सिले की परवाह के मिस्दाक़ खिदमत ख़ल्क़ में मसरूफ उम्र ,ओहदा ,शोहरत के बावजूद दिन बी दिन उन की तबीअत में ग़रूर की बजाये अजज़ बढ़ते देखा। ऐसी पुरखुलुस शख्सियत दुनिया उनेह डॉ वासिफ से जानती हैं लेकिन वह हमारे लिए है "हमारे दूलह दादा "
हमारे खानदान में ननिहाल में बड़ो को इज़्ज़त से बुलाने के लिए अजीब से खितबात से नवाज़ा जाता ,दूल्हे दादा मुझ से उम्र ४ साल बड़े हैं ज़िन्दगी में सिफ एक बार दूल्हा बने लेकिंन हमारी नज़रों में उनकी उरफ़ियत वही रही ,हालांकि बाद में उन्हों ने सेवाग्राम से डॉक्ट्रेट की डिग्री हासिल कर ली और डॉ वासिफ अहमद कहलाये ,उन के बचपन के वाक़ेआत सिर्फ अब्बा ,आपा से सुने हैं। सुना है उस ज़माने के फाइनल इम्तेहान ,जो सातवीं जमात के बाद होते थे ,जनाब ने शुहरत के झंडे गाड़ दिए थे। एक दिन उन के प्राइमरी स्कूल के ज़माने के उस्ताद शफी जनाब से बस के सफर के दौरान ,इत्तेफ़ाकन मुलाक़ात हो गयी कहने लगे " जिस तरह पूत के पांव पालने में नज़र आजाते हैं तुम्हारे भाई साहेब डॉ वासिफ अहमद बहुत ज़हीन हुवा करते थे उसी वक़्त में ने अंदाज़ा लग लिया था के ये ज़िन्दगी में कुछ न कुछ कर दिखायेंगें "
बचपन में कद छोटा था तुनक मिज़ाजी और नफासत मिज़ाज में कूट कूट कर भरी थी।
उन से ज़रूर मिलना सलीके के लोग हैं
सर भी क़लम करे करेंगे बड़े एहतेमाम से
स्कूल के ज़माने में text की किताबें साल भर इस्तेमाल करने के बाद पौन कीमत में बेच दिया करते थे। खाने में भी नफासत थी अक्सर छोटी आपा उनके लिए एक पियाली में सालन और दो सुथरी बोटियाँ निकल कर अलग से रख दिया करती। उस ज़माने में ज़ाहिद, राशिद ,जावेद और में बदनसीब उनकी रिआयत हुवा करते और वह किसी बेताज बादशाह की तरह हम पर हुकूमत करते। उन के घर पहुँचते ही हम लोग कोनो खदरों में घुस जातें। मानो कर्फू लग गया हो। वरना बात बात पर हम सब की पिटाई होती और हम बेबस उनेह नालायक़ बद्तमीज़ कह अपनी भड़ास निकल लिया करते। सब से ज़ियादा में उन की ज़ियादतियों का शिकार होता कुयकिं में उनका पीट शरीक भाई था। जनाब तो शान से सलून में हेयर कटवा कर आतें और हम सब को ज़बरदस्ति चार आने में सुकलाल मामा ,जो हजामत की पेटी लिए घर घर घूमता था , से बेढब से बाल कटवाने पडतें। अगर वह भी कभी महगांई का रोना रो कर ५ पैसे ज़ियादा मांगता तो उसे भी डांट पड़ती "बाल काटने आतें नहीं और करते हो पैसे बढ़ाने की फालतू बात ,अगली बार से आने की ज़रुरत नहीं" और उस के रोंगटें खड़े होजाते दाम बढ़ने से तौबा कर लेता। हमारी धोबन भी उनके सामने आने से कतराती थी,क मुझे याद है ५ पैसे कपडे पर बढ़ाने के लिए उसे नाकों चने चबाना पढ़ते । आज सोचता हूँ तो अहसास होता है उन की इस हिकमत अमली से अब्बा को किस क़द्र सहारा मिलता होगा, जो ५५ रूपयें महीने की पेन्शन में घर की गाडी को खीचने की नातमाम कोशिश करते थे।
ज़िन्दगी नाम हैं यादों का तल्ख़ और शीरीं
बचपन की कुछ यादें ज़हन पर लायानी नुक़ूश छोड़ जातीं हैं भुलाये नहीं बोलतीं। देव आनंद की असली नक़ली फिल्म रिलीज़ हुवी थी बहुत हिट हुवी थी। मुझे स्कूल से हरे महीने १० रूपये स्कालरशिप मिला करती थी उस में से अब्बा की तरफ से महीने में एक फिलम देखने के लिए ६० पैसे मिला करते थे। जलगाव में चित्रा सिनेमा में यह फिल्म लगी थी। लम्बी क़तार छोटी सी टिकट खिड़की हुवा करती ,लोग एक दूसरे के सरों पर चलतें हुवे खिड़की तक पहुंचतें ,टिकट निकलना भी मानो एक आर्ट था। में ने एक अजनबी शख्स को टिकेट निकलने के लिए पैसे दिए जो टिकेट खिड़की के पास था ,वह भीड़ में ऐसा ग़ायब हुवा जैसे गधे के सर से सींग। जाने भाई साहब को कैसे पता चल गया। में ३ घंटे आवारा गर्दी करके घर पहुंचा शायद किसे पता न चले । घर लौटने पर बही साहेब प्यार से पूछने लगे फिल्म दख आये ? में ने झूट मूट कह दिया होटल चला गया था फिल्म देखने का मूड न था। "पुछा क्या क्या खा आये " में ने कहा "लड्डू पेड़े " पूछने लगे और क्या क्या ?में गड बड़ा गया ,फिर तो खूब लाल पीले हुए। फिर वह पिटाई हुई क्या बताऊ तौबा। लेकिन जिंदगी भर के लिए सबक मिला ,और फिर कभी किसी से झूट बोलने की जुर्रत न हुयी।
बचपन एक हादसा , भाई साहेब स्कूल से लौटते हुवे नटवर थिएटर के क़रीब एक बिजली के खम्बे से टकरा कर बेहोश होकर गिर पड़े थे। दोस्तों ने उनेह घर पुह्चाया था। कई घंटों के बाद उनेह होश आया था ,अब्बा और हम सब बहुत परेशान हुवे थे।लेकिन जैसे फिल्मों में होता है, हीरो की याददाश्त किसि हादसे के बाद लोट आती है , उस हादसे के बाद ,डॉ साहेब की ज़हानत में ज़रूर तर्रकी हुवी थी वल्ला आलम बिसव्वाब।
उस ज़माने में क्रिकेट का उनेह जूनून था। उन का फ्रेंड सर्कल भी रंगा रंग हुवा करता था। रहीम, अनीस ,रउफ और मुनाफ जो नक्काली में इन्तेहाई माहिर था। रशीद वकील उस ज़माने जलगाओं के मशहूर वकील हुवा करते थे, मगर हिकलाया करते थे। मुनाफ हूबहू नक़्क़ाली किया करता किस तरह जज से आर्गुमेंट करते होंगे अपनी तरफ से मिर्च मसाला लगा कर तमाम दोस्तों के सामने नक़ल निकलता ,दोस्तों में वकील साहब का बेटा रउफ भी हुवा करता बेचारा जुज़ बुश हो कर रह जाता। हमारे मोहल्ले कटिया फ़ैल में हमारे पड़ोस में मियां खान रहते थे ,जलगाव सिविल कोर्ट में चपरासी हुवा करते थे। उनेह म्यूं से चिड़ होगयी थी ,अक्सर डॉ वासिफ और उनके दोस्तों के मज़ाक का निशाना बना करते। एक दिन मुझे कहने लगे "अपने भाई और उन के दोस्तों समझा देना एक दिन सब को जज साहेब के सामने खड़ा कर दूंगा मेरी उन से बड़ी अछि जान पहचान है "
१९६५ में भारत पाक जंग होरही थी मोहल्ले में सिर्फ गुलबास खान मिस्त्री के पास रेडियो हुवा करता था, बड़े ज़ोरो शोर से रेडियो पाकिस्तान से ख़बरें नशर हो रही थी। यही मियां खान बीच सड़क पर खटिया डाले ख़बरों से लुत्फ़ अन्दोज़ हो रहे थे के ,डॉ साहेब के कुछ दोस्त आ धमके और हसीं मज़ाक हल्ला गुल्ला करने लगे। मियां खान को खलल हुवा ,आग बगुला होगये। लेकिन मामला इस तरह रफा दफा हुवा के भाई साहेब और उन के दोस्तों ने उनेह इस बात का अहसास दिलाया के ,रेडियो पाकिस्तान से ,जंग के दरमियान खबरें सुन्ना जुर्म था। उनेह इस बात का भी अहसास होगया के शायद उनेह अपनी ही कोर्ट में मुजरिम की तरह खड़ा होना पड़े।
फिर उनोह ने अपनी ज़हानत का एक और सबूत दिया एसएससी में distinction में कामयाबी। जिस साल उनोह ने एसएससी पास कर एंग्लो उर्दू हाई स्कूल जल्गाओं को अलविदा कहा में ने आठवी क्लास में एंग्लो में दाखला लिया। प्रिंसिपल सय्यद सर की केबिन में टॉप करने वाले बच्चों की , बोर्ड पर लिस्ट लटकी हुवी थी ,और अब भी है ,डॉ वासिफ का नाम भी उस में शामल था। एंग्लो में हमें डॉ वासिफ के छोटे भाई के नाम से शोह्तात हासिल हो गयी। उन के नाम से कहीं फायदा पोहंचता तो कहीं नुकसान। अछे नंबर मिलते तो कहा जाता ज़हानत वर्से में मिली है। शरारत करते तो हमें शर्म दिलाई जाती वासिफ के छोटे भाई होकर ऐसा काम करते हो शर्म नहीं आती। एक बार एम . ऐन . सय्यद सर क्लास में दाखिल होरहे थे किसी ने मुझ से पूछा किस सर का लेक्चर है में ने सर को नहीं देखा था, बेख्याली में बोल गया ,एम. एन. का, बंडू का ,जो उन की उरफ़ियत थी , मुझ पर बहुत घुस्सा हुवे कहने लगे "ऐसी बात कहते शर्म नहीं आती ,नाज़ था जिन पे वही पत्ते हवा देने लगे ,कहाँ वासिफ अहमद कहाँ तुम "
अब्बा की मामूली पेनशन ,घर में तंगदस्ती थी। जलगाओं का छोटा सा घर अब्बा,छोटी आपा ,दूल्हे भाई, जावेद ,में और आपा के तीन छोटे बचें। घर में धमाँ चोकड़ी हुवा करती। रात में मिटटी के तेल की लालटेन जला करती। भाई साहेब की पढ़ाई का तरीका भी अजीब हुवा करता। सर्दी में फिर भी ग़नीमत था, गर्मी के मारे लोगों का बुरा हाल होता वह भी जल्गाओं की गर्मी उफ़ !लेकिन जनाब लोहे के पलंग को इर्द गिर्द से चादर से ढांप कंदील और किताबें लेकर घुस जाया करते ,पढ़ाई में मसरूफ होजतें ,फिर न उनेह बच्चों की चीख पुकार सुनायी देती न मोहल्ले के सरकारी नल पर औरतों की घमसान लड़ाई। आज सोचता हूँ तो लगता है इस हब्स में इंसान का दम घुट जाये। इंिनिह हालत में इंटर साइंस का EXAM M.J.College पास कर ,उनेह डॉक्टरी में सेवाग्राम मेडिकल कॉलेज में दाखला मिल गया। शहर में धूम मच गयी।
इन ५ सालों में जब वो मेडिकल स्टडी कर रहे थे हम दोनों में दूरी ,फासले बढ़ गए। छुटियों में जब वह घर आते उनके और उनके दोस्तों के दरमियान हम कबाब में हड्डी हुवा करतें । छुटियों के खात्मे पर जिस वक़्त उन की सेवाग्राम रवानगी होती जलगाओं स्टेशन तक उनके दोस्तों की बारात उनेह अलविदा कहने के लिए होती।
MBBS करने के बाद शायद वह हमारे ख़ानदान के पहले शख्स थे जिनोः ने हवाई सफर किया। बिहार में चेचक ज़ोर व शोर से फैली थी लोग कीड़ों मकोड़ों की तरह मर रहे थे। WHO कर्कुनान के साथ मिल कर उनोह ने दुनिया से चेचक के ख़ात्मा कर दिया।
एसएससी के बाद दादाभाई ने मुझे मुंबई बुला लिया। तब तक में काफी सेहत मंद हो गया था उम्र में डॉ वासिफ के बराबर नज़र आने लगा था। फिर ये हुवा के उनोह ने मुझे अपने दोस्त का दर्जा दे दिया। गुजरात में वह मेडिकल ऑफ़िसर बन गए। अब्बा और जावेद उस दौरान मुंबई आ गए थे। वो छुट्टियों में मुंबई आते हम साथ साथ मुंबई की सड़कों की खाक छाना करतें। फ़िल्में ,शूटिंग ,मुशयरें ,ड्रामे देखा करतें। INTER SCIENCE में नाकामी से में काफी मायूस हो चूका था शायद तालीम छोड़ बैठता ,मुझ में खुद एत्मादि लौटने में, में उनेह ज़िम्मेदार समझता हूँ। मेरे और जावेद के लिए रिश्ते की तलाश और बाद में हमारी शादी करवाने में भाई साहेब और भाभी जान का हाथ रहा है।
फ़िल्में देखने का उनेह शौक़ था। छुट्टियों मुम्बयी आने के बाद या तो फिल्म देखते या अब्बा से गरम गरम बहस करते नज़र आते। उनकी यही कोशिश होती के अब्बा किसी तरह उन के नज़रिये से मुत्तफ़िक़ होजाये ,लेकिन कामयाबी शायद ही मिल पाती।
हम दोनों में उन दिनों काफी मुशबीहाट हुवा करती। अपनी शनाख्त कायम रखने के लोए में ने डर के मारे फ्रेंच कट दाढ़ी रख ली थी। इसके बावजूद मज़्हका खेज़ वाक़ेआत रुनुमा होजाते थे। मेरे एक दोस्त से सुबह मेरी मुलाक़ात हुवी -शाम में उनेह भाई साहेब नज़र आगये कहने लगे "रागिब साहब आप ने दाढ़ी क्यों मुंडवा दी।
वक़्त गुज़रने के साथ साथ में उन से ज़ियादा सेहतमंद होगया और लोग मुझे उनका बड़ा भाई समझने लगे। मेरे दोस्त तो इस बात से वाक़िफ़ थे के वो मुझ से उम्र में बड़े हैं लेकिन अक्सर जब उन के दोस्तों से मेरा तारुफ़ छोटा भाई कह कर करवाते तो लोगो के चेहरे पर बेयक़ीनी पढ़ी जा सकती जैसे कहना चाहते हो "क्यों माज़क़ कर रहे हो साहब ".
रास्त गो इतने के ये रास्त गोई मसीबत के वजह भी बन जाती है। एकदिन गोवंडी से बस के ज़रिये हम बसंत फिल्म देखने जारहे थे। रस्ते में टाटा नगर मस्जिद के क़रीब उनेह एक घर के बाहर बाबा का बोर्ड नज़र आया हर क़िस्म की बीमारी इलाज,भूत पारित जिन आसिब के साये से नजात, बाबा पर फ़िक़रे कस दिए इत्तेफ़ाकन इसी बस में उनिह बाबा के दूसरी बीवी भी सवार थी वो सलवातें सुनायी के कान बंद करने पड़े।
में भी अक्सर फुर्सत मिलते ही उन के पास पहुँचता। व्यारा ,बालपूर , मियांगाम कर्जन उनिह के वजह से देखने को मिले। उनेह मेंने बेहतरीन administrator पाया। स्टाफ पर उनका रुआब छाया रहता था। उनके ज़रिये अजीब अजीब शख्सियतों से जान पहचान हुवी। कर्जन में उनके स्टाफ में ड्राइवर की अजीब आदत थी कभी मूं खोल कर बात न करता था मानो शीशे का बना हो। उनकी OPD में हमेशा मरीज़ों का ताँता बंधा देखा और ये भी सख्ती कभी नरमी प्यार से मरीज़ों से निपटते रहतें।
अब उम्र की ६५ मनज़िलें फलांग चुके हैं ,तरक़्क़ी करते करते DHO की पोस्ट तक पहुँच कर पेंशन पा चुके है। चाय खाना छोड़ चुके है ,हज के फ़र्ज़ से दोनों मियां बीवी फ़राग़त पा चुके हैं। मज़हब की तरफ रागिब हो गएँ है। बच्चों की शादियों फ़ारिग़ हो गए हैं पोता ,नवासी को जोड़ों खिला रहे हैं। तबियत में शगुफ़्तगी नरमी आगयी है लेकिन काले बालों को देख उम्र का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है।
चहरे से किरदार परखने में माहिर मेरे हमदम मेरे दोस्त अक्सर बीमारी और दुनयावी मामलात में में ने उन के अमश्वरों अमल किया हूँ और कामयाब रहा हूँ। ग़ालिब के शेर की हूँ बहु नक़ल है। न सताइश की तमन्ना ने सिले की परवाह के मिस्दाक़ खिदमत ख़ल्क़ में मसरूफ उम्र ,ओहदा ,शोहरत के बावजूद दिन बी दिन उन की तबीअत में ग़रूर की बजाये अजज़ बढ़ते देखा। ऐसी पुरखुलुस शख्सियत दुनिया उनेह डॉ वासिफ से जानती हैं लेकिन वह हमारे लिए है "हमारे दूलह दादा "