यादे माज़ी अज़ाब है या रब
कल किसी काम से बेलासिस रोड पर जाने का मौक़ा मिला। माज़ी कि यादें ताज़ा होगई। कॉलेज का ज़माना याद आगया। १९७५-१९७७ ग्रेजुएशन महाराष्ट्र कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स साइंस कॉमर्स, बिल्डिंग अब भी मौजूद है। कॉलेज हाल वैसा ही है ,कमरे वैसे ही है। कोई जानी पहचानी सूरत नज़र नहीं आयी। स्टूडेंट नए ,टीचर नए लेकिन कॉलेज कि बिडिंग मानो किसी ने फ़ोटो फ्रेम में क़ैद कर लिया हो। मुंशी सर, मलुस्ते सर ,ककुक्षीवाला सर,न जाने कहाँ है। हमारे साथी मज़हर, अल्ताफ, सलमा ,असलम ज़िन्दगी कि भीड़ में कहाँ गम होगये ,हयात भी है या नहीं।
ज़िन्दगी क्या है दम बा दम चलना
कॉलेज के पड़ोस में घोड़ो के अस्तबल थे कई बार खाली करने के लिए आग भी लगायी गयी। घोड़े सड़कों पर सरपट दौड़ते देखें ,कई घोड़ों कि जान भी गयी। उस ज़माने में उन अस्तबलों को खाली तो न कर पाये लेकिन अब वहाँ पर माल्स ,ऊँची ऊँची बिल्डिंगें खड़ी हें। सिग्नल के पास Keddy co कि बिल्डिंग कि जगह पर नई ईमारत बन गयी है।
कॉलेज के सामने एलेक्सेंडर सिनेमा हुआ करता था इंग्लिश फ़िल्में दिखाई जाती थी। कमाटी पूरा से गजेंटी ,लुच्चे ,लुक्खे लोगों कि भीड़ फ़िल्म देखने के लिए जमा होती। गंदे गंदे पोस्टर लगा लोगों को अट्रैक्ट किया जाता। पोस्टरों में लड़कियों के जिस्म पर कपडे कुछ कम होजाते तो प्रिंसिपल मुंशी इन पोस्टरों कि खिलाफ मुहीम चला के हटवा भी देतें के स्टूडंट्स के मोरल पर बुरा असर पड सकत है। शायद उस ज़माने में कुछ शराफत बची थी। हमें मालूम नहीं फ़िल्में कैसी होती लेकिन पोस्टर पर इंग्लिश फिल्मों का नाम बड़ी होशियारी से हिंदी में बदल दिया जाता। जैसे एक लुक्का तो दूसरा मुक्का, बिंदिया गाडी में बन्दूक साडी में, पहाड़ों कि मलका,वगैरा।
कॉलेज के कल्चरल प्रोग्रम्मेस आज भी नहीं भूल पातें। कृष्णा चन्द्र ,ख्वाजा अहमद अब्बास ,फैज़ अहमद फैज़,जावेद अख्तर उस ज़माने का शायद कोई अदीब ,शायिर बचा हो जिस ने महाराष्ट्र कॉलेज आने में फखर महसोस न किया हो। कॉलेज एनुअल डे में जावेद अख्तर ,अमजद खान बलराज साहनी को चीफ गेस्ट बनाया जाता। मुशायरे ,अदबी महफ़िलें ,बैत बाज़ी मामूल सा था। करीब में साबू सिद्दीक़ कॉलेज में कादर खान के ड्रामों कि धूम थी।
गया वक़्त हात् आता नहीं
३६ साल का लम्बा अरसा गुज़र गया। जिस कि यादें अब भी बाकी हैं
कल किसी काम से बेलासिस रोड पर जाने का मौक़ा मिला। माज़ी कि यादें ताज़ा होगई। कॉलेज का ज़माना याद आगया। १९७५-१९७७ ग्रेजुएशन महाराष्ट्र कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स साइंस कॉमर्स, बिल्डिंग अब भी मौजूद है। कॉलेज हाल वैसा ही है ,कमरे वैसे ही है। कोई जानी पहचानी सूरत नज़र नहीं आयी। स्टूडेंट नए ,टीचर नए लेकिन कॉलेज कि बिडिंग मानो किसी ने फ़ोटो फ्रेम में क़ैद कर लिया हो। मुंशी सर, मलुस्ते सर ,ककुक्षीवाला सर,न जाने कहाँ है। हमारे साथी मज़हर, अल्ताफ, सलमा ,असलम ज़िन्दगी कि भीड़ में कहाँ गम होगये ,हयात भी है या नहीं।
ज़िन्दगी क्या है दम बा दम चलना
कॉलेज के पड़ोस में घोड़ो के अस्तबल थे कई बार खाली करने के लिए आग भी लगायी गयी। घोड़े सड़कों पर सरपट दौड़ते देखें ,कई घोड़ों कि जान भी गयी। उस ज़माने में उन अस्तबलों को खाली तो न कर पाये लेकिन अब वहाँ पर माल्स ,ऊँची ऊँची बिल्डिंगें खड़ी हें। सिग्नल के पास Keddy co कि बिल्डिंग कि जगह पर नई ईमारत बन गयी है।
कॉलेज के सामने एलेक्सेंडर सिनेमा हुआ करता था इंग्लिश फ़िल्में दिखाई जाती थी। कमाटी पूरा से गजेंटी ,लुच्चे ,लुक्खे लोगों कि भीड़ फ़िल्म देखने के लिए जमा होती। गंदे गंदे पोस्टर लगा लोगों को अट्रैक्ट किया जाता। पोस्टरों में लड़कियों के जिस्म पर कपडे कुछ कम होजाते तो प्रिंसिपल मुंशी इन पोस्टरों कि खिलाफ मुहीम चला के हटवा भी देतें के स्टूडंट्स के मोरल पर बुरा असर पड सकत है। शायद उस ज़माने में कुछ शराफत बची थी। हमें मालूम नहीं फ़िल्में कैसी होती लेकिन पोस्टर पर इंग्लिश फिल्मों का नाम बड़ी होशियारी से हिंदी में बदल दिया जाता। जैसे एक लुक्का तो दूसरा मुक्का, बिंदिया गाडी में बन्दूक साडी में, पहाड़ों कि मलका,वगैरा।
कॉलेज के कल्चरल प्रोग्रम्मेस आज भी नहीं भूल पातें। कृष्णा चन्द्र ,ख्वाजा अहमद अब्बास ,फैज़ अहमद फैज़,जावेद अख्तर उस ज़माने का शायद कोई अदीब ,शायिर बचा हो जिस ने महाराष्ट्र कॉलेज आने में फखर महसोस न किया हो। कॉलेज एनुअल डे में जावेद अख्तर ,अमजद खान बलराज साहनी को चीफ गेस्ट बनाया जाता। मुशायरे ,अदबी महफ़िलें ,बैत बाज़ी मामूल सा था। करीब में साबू सिद्दीक़ कॉलेज में कादर खान के ड्रामों कि धूम थी।
गया वक़्त हात् आता नहीं
३६ साल का लम्बा अरसा गुज़र गया। जिस कि यादें अब भी बाकी हैं